काव्य-निर्णय ३६६ जतन ढूंढते बस्तु की, बस्तु-हिं आवै हाथ । त्रिविध 'प्रहरषन' कहत हों,' लखि लखि कबिता-गाथ ॥ वि०-"प्रहर्षण के शब्दार्थ-द्वारा-जहाँ हर्ष-वद्धक अर्थ की सिद्धि हो वहाँ यह (प्रहर्षण) अलंकार होता है और उसके तीन भेद हैं, जैसा दासजी कहते हैं । प्रथम प्रहर्षण वहाँ “जहाँ अति यत्न कर थकने पर भी वांछितार्थ अल्प हो", दूसरा वहाँ "जहां वांछितार्थ थोड़ा, पर देव-योग से लाभ अधिक हो" और तीसरा प्रहर्षण वहाँ-जहाँ वस्तु-प्राप्ति का यत्न ढूढते-ही वस्तु की प्राप्ति हो जाय"। इन तीनों प्रहर्पण-भेदों की दासजी-द्वारा मान्य व्याख्यात्रों के विपरीत भी व्याख्याएँ (लक्षण) मिलती हैं, यथा-व्रजभाषा- "तीन 'प्रहरपन' जतन-बिन, बांछित-फल जो होइ । बांछित-हू ते अधिक फज, सम-बिन लहिऐ सोइ ॥ साधत जाके जतन कों, बस्तु चढकर सोह। अर्थात् “जहाँ इच्छित-फल की प्राप्ति बिना यत्न के हो जाय, जहाँ बिना परिश्रम के वांछित-फल से भी अधिक प्राप्ति हो जाय और जहाँ वही वस्तु हाथ लग जाय, जिसके यत्न का साधन किया जा रहा हो'-इत्यादि क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय प्रहर्षण के लक्षण हैं, जिन्हें भाषा-भूषण के रचयिता महाराज जसवंत सिंह जी ने कहा है। मतिरामजी ने भी तीनों प्रहर्षणों के लक्षण क्रमशः - “जहँ उत्कंठित अर्थ की बिन-उपाइ-ही सिद्धि", "जहँ मॅन- इच्छित अर्थ ते, अधिक सिद्धि अभिरॉम' और “जहाँ अर्थ की सिद्धि को, जतन- हिं ते फल होई' लिखे हैं । मतिरामजी-द्वारा कथित तृतीय प्रहर्षण का लक्षण भाषा भूषण से प्रथक है। पद्माकर कहते हैं- "बांछित-फल-सिधि जतन बिन.......", सु प्रहरन सिधि-अर्थ की बांछित ते अधिकाई", जा-हित जतन सु ताहि ते मिले०"......इत्यादि । पद्माकर-द्वारा कथित तृतीय प्रहर्पण का लक्षण मी पूर्व कथित भाषा-भूषण से विपरीत है । अतएव इन सब के साथ संस्कृत के भी अलंकार-थों के आधार पर तीनों प्रहर्षणों के निम्नलिखत लक्षण सुदर बनते हैं, जैसे- ___ "उत्कंठित पदार्थ की बिना यन के सिद्धि होना, वांछित अर्थ की अपेक्षा अधिक लाभ होना, उपाय की खोज-द्वारा साक्षात् फल मिलना-इत्यादि......" पा०-१. (का० ) (प्र०) हैं...।
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