४२६ काव्य-निर्णय "माजू महारानी को बुलाबी महाराज हैंकों, ___लीजै मत केकई - सुमित्रा के जिव को। रात को सपत रिषि हू के बीच विलसत, सुनों उपदेस ता अरु धती के पिय कौ ॥ 'सेनापतिविस्व में बखाँने विस्वामित्र नॉम, गुरू - बोलि बूझिए प्रबोध करें हिय को । खोलिऐ निसंक यै पँनुष न संकर को, कुँबर मयंक - मुख कंकन है सिय कौ ॥ "पद - पखरिबो चयों जबै बैदरभ - कुमारी। तबै सकुचि द्विज कहयो, नॉथ हम दीन-भिखारी ॥ अस आदर मम करौ नाथ, सो कहा मरॅम-गुनि । हम न होंइ सुकदेव-ब्यास,नहिं गरग, कपिल मुनि ॥ नहिं भृगु, नहिं नारद हुते, दुरबास-हूँ मत जाँनिऐं। हम दीन सुदाँमाँ रंक है, भजों नाँथ पहचाँनिऐं ॥" अथ विधि-अलकार लच्छन जथा- अलंकार 'यिधि' सिद्धि कों, फेरि कोजिऐ सिद्ध । "भूपति है, भूपति वही, जाकें नीति समृद्ध ॥" वि०-"जहाँ सिद्ध (विधि) को फिर सिद्ध किया जाय, किसी सिद्धार्थ को किसी विशेष अभिप्राय से पुनः सिद्ध किया जाय, वहाँ 'विधि अलकार' होगा, यह दास जी का अभिमत है। विधि का अर्थ-'विधान' माना जाता है, अतएव जहाँ जिस वस्तु का विधान सिद्ध है, उसका फिर से अर्थातर-गर्मित विधान किया जाता है। यह प्रतिषेध का प्रतिद्वदी अलकार है। इस अल कार का उल्लेख अप्पय दीक्षित ने कुवलयानंद (संस्कृत) में किया है, अस्तु वहाँ इसका कोई वर्गीकरण नहीं है। फिर भी इस विधि अल कार को प्रतिषेध का साथी (भले ही प्रतिद्वंदी है) होने के कारण इसे 'गूढार्थ-प्रतीत मूल वर्ग में बिठाया जा सकता है।"
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