पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४६२

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४२७. काव्य-निर्णय विधि-उदाहरन जथा- धरें काच-सिर भी करै, नग को पगॅन बसेर। काच, काच है', नग नगे, मोल-तोल की बेर ।। रे मँन, कॉन्ह में लीन जु'होइ तो, तो-हू कों में मन में गुनि राखों। जीब जो हाथ करें ब्रजनाथ तो, तोहि में जीवन हों अभिलाखों ।। अंग गुपाल के रंग-रँगै तौ, हों अंग-लहे को महा-फल चाखों। 'दासजू' धाम है स्याँम को राखे तौ, तारिका तोहि में तारिका-भाँखों ।। वि०-"विधि अलंकार से विभूषित 'गोकुल कवि' की यह सुंदर सूक्तिः भी दर्शनीय है, जैसे- "चौसर चंदन सों चुपरे, सुचि कंचन की रुचि सों भरि भावें । उन्मत, पीन, कठोर महा, मकरध्वज के करि - कुंभ लजावें ॥ 'गोकुल' कंचुकी-बीच दुरे, दुरि देखत ही कुलकॉन दुराबें । लागत हैं पिय के उर सों, तब अोज भरे-ते सरोज कहावें ॥" अथ काब्याापत्ति अलंकार लच्छन जथा- यह भयौ तौ ये कहा, या विधि जहाँ बखाँन । कहत काव्य-पद सहित तह, भरथापत्ति' सुजॉन ॥ वि०-'काव्यार्थापत्ति इस उल्लास का अंतिम अलंकार है, जिसका लक्षण दासजी मतानुसार-“यह हुअा तो यह क्यों नहीं" किया गया है। काव्यार्थापत्ति (अर्थापत्ति) को रुय्यक तथा पीयूष-वर्ष जयदेवजी ने माना है। जयदेव के चंद्रा- लोक में इसका लक्षण अर्थापत्ति नामकरण के साथ-"मर्यापत्तिः स्वयं सिभ्ये- पदार्थातर वर्णनं" (जहाँ स्वयं सिद्ध पदार्थ के अंतर का भी वर्णन हो) कहा गया है। अर्थात् जहाँ एक पद में वर्णित क्रिया-द्वारा दूसरे पद का अर्थ बिना कहे स्पष्ट हो जाय वहाँ अर्थापत्ति वा काव्यार्थापत्ति अलंकार कहना चाहिये । साहित्य-दर्पण (संस्कृत ) में कहा है -"दंडपूपिकयाम्पार्थागमोऽर्थापत्तिरिष्यते" (दंडपूपिका-न्याय से दूसरे अर्थ का शान होने पर-अर्थापत्ति)। इस 'दंड- पूपिका-न्याय' को अधिक स्फुट करते हुए वहाँ ( साहित्य-दर्पण-हिंदी-विमला ___पा०-१. (का०) (०) ही...| २. (का०) जो...। (१०) जो.... ३. (का०) (३०) गनि...। ४. (का०) (३०) (प्र०) में...। ५. ( स० पु० प्र०) रँगी । ६. (स० पु० प्र०) (२०) राखौ...। ७. (का०) (३०) इहि विवि कहा...1८. (का०) यह...।