पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४६४

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काव्य-निर्णय ४.२E अस्य उदाहरन जथा- बंधुजीब के दुख-दहै, भरुन-अधर तब बाल । 'दास' देत इहि क्यों डरै, पर-जीबन-दुख-जाल ||* मैं, बारों वा बदन पै, कोट-कोट सत इंद । ता – ए बारें कहा, 'दास' रुपईया-बूंद ।

चंद-कला-सौ कहायौ कहूँ ते, नखच्छत-पंक५ लग्यौ उर तेरे । सौतिहू को मुख पूरन चंद-सौ, जोति-विहीन भयौ जिहिँ नेरे।। कातिक-हू को कलानिधि पूरौ, कहा कहों सुंदरि तो-मुख हेरे। 'दास' यहै अँनुमाँनि के अंग-सराहिबौ छोड़ दियौ मँन मेरे ॥ वि०-"सूरत मिश्र का यह छंद भी 'काव्यापत्ति' रूप सुदर है, जिसे भारती-भूषण में उद्धृत किया गया है- "जिन-जिन सीन के मोंती हुते भंगन में, तरे ते-ते सीप-जीब करि चित-चाव को । जिन-जिन वृच्छन की लाख हुती भूषन में, 'सूरत' सु तरे तेहू छाँदि दुख-दाब कों। मीजत पटंबर, दिगवर भए हैं कीट, चून ते गेंडा-गज तरे निज भाव कों। सुदरिन-अन्हात ए हू है तरे ऐसें, भरु तिनकी कहा है, जाँनें गंगा के प्रभाव कों॥" और भक्त-प्रवर "रसखान", जिनके प्रति कहा गया है-"इन मुसलमान कवि- जॅनन पर कोटॅन हिंदू वारिऐ" का काव्यार्थापत्ति के कलेवर में चमकता हुअा ऐसा अनुपम भूषण है, जिसे धारण करने के लिये सब का दिल मचल जाय, यथा- "लाज को लेप चढाह के अंग पची सब सीख को मंत्र सुनाइ के। गारडू है ब्रज-लोग क्यो, करि भौषध बेसक सोंह दिबाइ कें॥ पा०-१.( का०)(प्र०) कों दुखद है। २. ( का० ) यह...। (३०) यो...! ३. ( का० ) (३०) जा...। ४. (सं० पु० प्र०) ता पर वारें ए कहा...। ५. ( का० ) (३०) एक...। ६. (३०) (सं० पु० प्र०) के मुख पूरन चंद-से, जोति बिहीन भऐ तिहि... ७:(का.)( )(प्र०) कहि... प. (३०) राखि लियो मन...।

  • २० स० (ला० भ० दी०) पृ० २६०, ७ ।