पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४६३

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४२८ काव्य-निर्णय टीका में ) लिखा गया है कि "किसी ने कहा कि. 'डंडा ( लकड़ी) चूहे ने खा लिया" तो इसमें यह बात भी आ गयी कि उस डंडे में बँधे हुए अपूप (मालपूश्रा ) भी उस (चूहे ) ने खा लिये। जिसने डंडे जैसी कठोर वस्तु नहीं छोड़ी ( उसे खा गया तो ) वह मुलायम और मीठे पूत्रों को कब छोड़ने वाला है । इसी तुल्यन्याय से जहाँ अांतर की अर्थ-बल से सिद्धि होती हो वहाँ "दंडपूपिका-न्याय' कहलाता है। अस्तु, जहाँ किसी दुष्कर कार्य की सिद्धि के द्वारा सुकर ( थोड़े परिश्रम से होने वाला) कार्य की सुगम सिद्धि इसी (दंडपूपिका- न्याय से) प्रकार प्रतीत होती हो वहीं इस न्याय ( दंडपूपिका-न्याय ) का विषय होता है । इसमें कहीं प्रकृत अर्थ से अप्रकृत अर्थ की और कहीं अप्रकृत से प्रकृत अर्थ की प्रतीति होती है।" ___काव्यार्थापत्ति का अर्थ है- काव्यगत अर्थ का श्रा पड़ना । इस लिये यहाँ किसी एक अर्थ की सिद्धि के सामर्थ्य से दूसरे अर्थ की सिद्धि स्वयं श्रा पड़ती है, -हो जाती है । अर्थात् , "जिसके द्वारा कोई कठिन कार्य सिद्ध हो सकता है तो उसके द्वारा सुगम कार्य का सिद्ध होना क्या कठिन है," इस प्रकार वर्णन का किया जाता है। मीमांसिकों के अनुसार भी अर्थापत्ति एक प्रकार का वह 'प्रमाण' है- जिसके द्वारा एक बात के कथन से दूसरी बात स्वतः सिद्ध मान ली जाती हो । इसमें प्रथम उपपाद्य और द्वितीय उपपादक ज्ञान कहलाता है। उदाहरणार्थ कहा जा सकता है कि "केव- नियमित भोजन से रामदत्त अति स्वस्थ है," इससे यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है कि अनियमित भोजन से उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता । न्याय-शास्त्र इसे अनुमान के भीतर मानता है, पृथक् प्रमाण नहीं। अतः सा हत्य में अलंकाराचार्यों ने इस "उपपाद्योपपादक-ज्ञानानुसार ही इस काव्यार्थापत्ति अलंकार को माना है। काव्यार्थापत्ति का लक्षण कविकुल-कंठाभरण (दूलह कवि ) में स्पष्ट और सुंदर है, वहाँ बाल की खाल नहीं खींची गयी है, यथा-"जहाँ कोंन्यों अरथ सों श्ररथ का सिद्धि, "काव्य-पति" अलंकार ऐसे निरबहा है ।" अर्थात् एक अर्थ से किसी दूसरे अर्थ की भी सिद्धि ही वहाँ...। काव्यापत्ति यदि श्लेष-मूलक हो तो अधिक शोभा-परक बन जाती है, यह कुछ अलंकाराचार्यों का अभिमत है, वास्तव में यह कथन सत्य के अधिक समीप है। कारण भी स्पष्ट है । कोई-कोई श्राचार्य अनुमानालंकार को काव्यापत्ति- विषय-जनक मानते है, यह ठीक नहीं है । अनुमान में दो बातों के संबंध की भावना होना अनिवार्य है-व्याप्य-व्यापक की एकत्र स्थिति आवश्यक है, काव्यापित्ति में नहीं। यही दोनों का पृथक्करण है।"