पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४६६

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अथ सोलहकाँ उल्लास अथ सूच्छम-अलंकारादि घरनन जथा- सूच्छम, पिहित', भौ जुक्ति गनि, गूढोत्तर, गूढोक्ति । मिथ्याँभ्यासायौ' ललित, बिवृतोक्ति, ब्याजोक्ति । परिकर, परिकर • अंकुरौ, ए3 ग्यारह बरेखि । धुंनि के भेदन में इन्हें, बस्तु ब्यंग करि लेखि ॥ वि०-"दासजी ने इस उल्लास में-"सूक्ष्म, पिहित, युक्ति, गूढोत्तर, गूढोक्ति, भिथ्याध्यवसित, ललित, विवृत्तोक्ति, व्याजोक्ति, परिकर और परिकरांकुर नाम के ग्यारह अलंकारों का वर्णन किया है। संस्कृत में ये अलकार सर्व प्रथम रुद्रट ने “परिकर और सूक्ष्म को 'वास्तव वर्ग' में, पिहित को 'अतिशय वर्ग' में माना है । अन्य अलकार उन्होंने नहीं माने हैं। इनके बाद रुय्यक और उनके शिष्य मंखक ने 'परिकर' को 'गम्यमान औपम्य वर्ग के अंतर्गत 'विशेषण- वैचित्र्य में, व्याजोस्ति को गूढार्थ-प्रतीति मूल वर्ग में माना है। इन्होंने भी परि- कर और व्याजोक्ति के अतरिक्त अन्य-अल कारों को नहीं माना है। रुय्यक के बाद-'परिकर, परिफरांकुर' अर्थ-वैचित्र्य प्रधान वर्ग में, 'पिहित और ललित' लोकन्याय मूल वर्ग में, 'मूक्ष्म, व्याजोक्ति, गूढोक्ति, विवृतोक्ति और मिथ्याध्य- वसित'-'गूढार्थ-प्रतीति-मूल वर्ग में माने गये हैं। युक्ति और गूढोत्तर का यहाँ उल्लेख नहीं है । युक्ति अलंकार का चंद्रालोक में तो उल्लेख मिलता है, गूढोत्तर का नहीं । गूढोत्तर अल कार केवल ब्रजभाषा के अलकार प्रथों में मिलता है । इस वर्गीकरण के अतरिक्त एक और वर्गीकरण मिलता है, जिसमें- "सूक्ष्म, व्याजोक्ति, युक्ति, पिहित और ललित को गूढार्थ प्रतीति मूल वर्ग में और 'गूढोक्ति, विवृतोक्ति, परिकर, परिकरांकुर और मिथ्याध्यवसित को उक्ति- चातुर्य मूलक वर्ग में रखा है । गूढोत्तर यहाँ भी वहिष्कृत है। दासजी ने इन संपूर्ण अलंकारों को एक ही वर्ग में "वनि-प्रधान' मानकर इनमें वस्तुव्यंग्य का कथन किया है।" पा०-१. (का०) (०) (प्र०) पिहिती जुक्ति...। २. (प्र०) मिथ्याध्यवसित ललित अरु...। ३. (का०) (३०) (प्र०) इग्यारह.... ४. (का०)(व.) (प्र०) के...।