काव्य-निर्णय पायौ, बैठि जावी, पग-छाबी, पान खायौ फिरि, सुचितै सुचित्त है के गॅनित निकारौ तौ ॥ "ठाकुर' कहत ये प्रेम की परीच्छा • छान, इच्छा को प्रमान भली भाँति निरधारी तो। मेरौ मँन, मोहन ते लागत है बार - बार, मोहन को मन मौते लागि है बिचारौ तौ ॥
"पंथ अति कठिन, पथिक कोऊ संग नाहि, ____तेज भए तारा-गॅन, छाँहन भयौ रवि है। खग ताके बिटप, मधुर चले कल्लँन कों, कंज गए सकुचि, कॅमोदिनी 4 छवि है ॥ जोगी है तौ बिरह की ज्वाला की जरी बताउ, भोगी है तो कही कॉम-पीर कैसे दबि है। जोतिसी जु है तौ कहि पीउ घर ऐहैं कब, बरनन की जै घटा जोपै कोऊ कवि है।" “यह तो नहीं, कि तुम-सा जहाँ में हँसी नहीं। इस दिल ओ क्या करूं,कि बहलता कहीं नहीं ॥" अस्तु, हमारी छुद्र-बुद्धि के अनुसार पोद्दारजी का अभिमत उपयुक्त नहीं है।" अथ मिथ्याँध्यवसाइ लच्छन जथा- एक मुठाई-सिद्ध कों, झूठौ बरने और । सो मिथ्याँध्यबसाइ'है,' भूषनकबि-सिरमौर ।। वि०-"जहाँ एक झूट को सिद्ध करने के लिए, और भी झूठों (असत्य- बातों) का वर्णन हो वहाँ "मिथ्या यवसित" अलंकार होता है। भाषा-भूषण रचयिता कहते हैं-"मियोध्यवसति कहत कछु, मिथ्याँ-कजन-रीति", अर्थात् "जहाँ एक मिथ्या बात के समर्थन में दूसरी मिथ्या बात की कल्पना की जाय - अथवा कही जाय। मिथ्याध्यवसित का अर्थ, मिथ्या और अध्यवसित को मिन्न (अलग-अलग) कर झूठ और निश्चय मान "मिथ्यत्व का निश्चय" करते हैं। अध्यवसित का पा०-१. (२० पु० प्र०) वरनतु.... २. (प्र०) सो मिथ्याध्यवसिति करें।