पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४७८

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काव्य-निर्णय अर्थ 'प्रयास' भी है। ऐसी स्थिति में 'मिथ्याध्यवसित' की परिभाषा -"जिस प्रकार की मिथ्या बात को सिद्ध करना है, वैसी-ही-मिलती-जुलती अन्य मिथ्या की कल्पना की जानी चाहिये, नहीं तो प्रयास व्यर्थ होकर अलंकार सिद्ध न कर सकेगा। मिथ्याध्यवसिति के जनक कुवलयानंद के रचयिता कहे जाते हैं। फिर भी काव्य-प्रकास (संस्कृत) की 'उद्योत' टीका के कर्ता 'नागोजी भट्ट' कहते हैं कि "यह अलंकार अतिशयोक्ति के अंतर्गत है, मिन नहीं। दूसरा अभिमत है कि इस अलंकार में मिथ्यात्व सिद्ध करने के लिये दूसरे मिथ्यात्व की-मिथ्यार्थ की कल्पना किये जाने के कारण नया चमत्कार है, कुछ नवीनता है, इसलिए प्रथक् मानना उचित है। कुवलयांनद में इसका लक्षणोदाहरण इस प्रकार माना है, यथा- "मिथ्याध्यवसितिमिथ्यासिय मिथ्यार्थनिर्मितिः। मिथ्याध्यवसितिश्यां वशयेरवस्त्रजं वहन् ॥" और जिसका ब्रजभाषानुवाद होता है- "मियाभ्यवसित झूठ-हित, कहै जु झूठी - रीति । धरै जु माला नभ-कुसुम, करै सु पर-तिय प्रीति ॥" मिथ्याध्यवसित को “गूढार्थ-प्रतीति मूलक कहा जाता है। साथ-ही यह

  • उक्ति चातुर्य-मूलक वर्ग में भी बिटलाया जा सकता है।"

अस्य उदाहरन जथा- सेज अकास के फूलन को सजि, सोबति' दीने प्रकास किबारें। चौक' में बाँझ के पूत' रहे', बहु पाँइ-पलोटत भूमि के तारें। नीर में 'दास' बिहार करें। अहि-रोम-दुसालँन कों सिर डारें। कोंन कहै तुम मूठी कहौ, में सदाँ बसती - उर लाल तिहारें। और मिथ्याध्यवसित का रघुनाथ कवि' कृत उदाहरण, जैसे- "गावत बंदर बैठे निकुज में, ताल-समेत में आँखिन पेखे। तें जो कयौ यह, सो सुनिके, अपने मन में इन साँच न रेखे ॥ पा में न झूठ का रघुनाथ' है, ब्रम्ह सनातन माया के लेखे । गाँउ में जाइ के मैं हूँ बछान कों, बैंज हि बेद पदावत देखे ॥ पा०- १. (का०) (३०) (प्र०) सोबती दोन्हि...दीन्ही, दीन्ह...। २. (वे.) (प्र०) चौकी...। ३. (३०) बेटा...। ४. ( स० पु० प्र०) बसे...। ५. (३०) पलोटती...। ६. (का०) (प्र०) करों-करो...। ।०) सौर में दास बिहार करौ। ( स० पु० प्र०)...बिहारी करो...। ७.(३०) दुसाली नयी सिर.... (स० पु० प्र०) दुसालो न ए...| R. (३०) को हो...।