पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४७९

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४४ काव्य-निर्णय अथ ललित-अलंकार लच्छन जथा- 'ललित' कहयो कछ' चाहिए, ता' ही कौ प्रतिबिंब । "दीप-बारि देख्यौ चहें, कूर जु सूरज - बिंब ॥" वि०-“यहाँ जो बात कहनी हो उसी के प्रतिबिंब-रूप बात कहने पर 'ललित' अलंकार होता है। ललित का अर्थ है-सुंदर, इच्छित । अतएव सुदर वा इच्छित (वर्ण- नीय) वृतांत का प्रतिबिंब कहा जाने पर यह अलंकार बनता है। अर्थात् , जहाँ कहने वाली बात अप्रिय वा गोप्य हो उसीके प्रतिबिंब-भाव-युक्त दूसरी बात, जो सुनने में अप्रिय न हो और सुंदर हो, कही जाय तब वहाँ ललित बनेगा । इसके विपरीत कठोर बात को प्रतिबिंब रूप द्वारा और भी कठोर-रूप से कहने पर यह अलंकार नही होगा, क्योंकि इस अलंकार का ध्येय-सुनने वालों को कुछ सांत्वना या आश्वासन देना होता है। प्रसन्नता से भरपूर वयं विषय को स्पष्ट कहने में कुछ आपत्ति नहीं होती, इसलिये वहाँ अलंकरण की आवश्यकता नहीं, अपितु दुःखादि को वात छिपाकर, साथ ही उसे सुचारु रूप से कहना-ही अल कारता है, जिससे वह 'ललित' बने..। ललित को स्वतंत्र-अलकार मानने में विभिन्न मत हैं। कोई प्राचार्य इसे 'अप्रस्तुत-प्रशंसा के अंतर्गत मानते हैं, तो कोई समासोति के, और कोई-निद- र्शना के भीतर मानते हैं तो कोई रूपकातिशयोक्ति के इत्यादि । अस्तु, इन अप्रस्तुत-प्रशंसादि अल कारों के अंतर्गत ललित को न मान स्वतंत्र रूप में कथन करने वाले प्राचार्यों का कहना है कि "अप्रस्तुत प्रशसा में वाच्यार्थ अप्रस्तुत होता है, ललित में प्रस्तुत होता है-प्रकरण-गत श्रोता के सन्मुख कहा जाता है। समासोक्ति में प्रस्तुत वृत्तांत में अप्रस्तुत वृत्तांत को प्रतीति करायी जाती है, यहाँ प्रस्तुत का प्रतिबिंब कहा जाता है। निदर्शना में प्रस्तुत-अप्रस्तुत दोनों का कथन करते हुए उन दोनों में एकता का आरोप किया जाता है, यहाँ केवल प्रस्तुत का ही प्रतिबिंब कहा जाता है । इसी प्रकार रुपकातिशयोक्ति में पदार्थ का अध्यवसान होता है, अभेद-ज्ञान का निश्चय होता है-उपमान-द्वारा उपमेय का निगरण होता, यहां प्रस्तुत वाक्य का अप्रस्तुत रूप में प्रतिबिंब कहा जाता है-इत्यादि कारणों से ललित किसी के अंतर्गत नहीं - स्वतंत्र है, अपने में पूर्ण है । फिर भी कहीं-कहीं इसका पृथक-करण, निदर्शना तथा पर्यायोक्ति जैसे अलंकारों से करना कठिन-ही है। उदाहरणों के प्रति-भी यही बात है. कोई पा०-१. (प्र०) जो...। २. (प्र०) (स० पु० प्र०) कहिय तासु प्रति...: