पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४८२

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काव्य-निर्णय स्वीकार की है। इसी प्रकार इनसे भिन्न मत प्रकट करते हुए भारती-भूषण (हिंदी) के रचयिता का कहना है कि "इस विवृतोक्ति में गूढोक्ति से छिपे हुए अर्थ के ( कवि द्वारा) प्रकट किये जाने मात्र की भिन्नता को भिन्न अलकारता के लिये पर्याप्त कारण न मानकर किसी-किसो प्रथकार ने इसका गूढोक्ति में अंतर्भाव किया है", पर हमारे विचार में इस भिन्नता के कारण इसकी भिन्न गणना होना अनुचित नहीं', ( उचित-ही है) और प्रायः ग्रथों में ऐसा ही हुश्रा भी है।" साथ-ही विवृतोक्ति के यहाँ दो भेद-"श्लिष्ट शब्दों और साधारण शब्दों की विवृतोक्ति" भी मानते हैं।" अथ उदाहरन जथा- नेन नचोंहे, हँसोंहे कपोल, अनंद सों मंगन'-अंग मात है। 'दास जू' सेदँन-सोभ जगी, परेम-पगी-सी ठगी ठहरात है। मोहि भुराबै अटारी चढ़ी, कहि कारी घटा बक-पाँति सुहात है। कारी घटा-बक-पाँति लखे, इहि भाँति भए कहाँ कोंन के गात हैं। किऐं सरस तन कों रही, तँनको रही न बोट । लखि सारी कच में लसी, कच में लसी खरोट । द्वार-खरी नबला अनूपम निरखि, उतरत भौ पथिक तहाँ० तन-मॅन-हारि के। चातुरी सों कयौ, इत रह्यौ हँम चाँह, नाहि- जायौ जात उन्नत पयोधर निहारि के। 'दास' तिन ऊतरु दियौ है यों बचॅन-मौखि, राखि के सँनेह सखी-मति को निवारि के। पा०-१. (शृ० नि०) अग न अग .. २. (का०) (वे.)(प्र०) परै...। (शृ० नि० ) पुरै...। ३. (वे. ) ( स० पु० प्र०) डगी...| ४.( का० ) ( 0 ) (प्र०) (स० पु० प्र०) भुलावे...। ५,-६, ( का० ) (३०)(प्र०) बग... ७. ( का० ) (३०) कहि...। (प्र०) कहु... ८. (३०) ( स० पु० प्र०) कियो...। ६. (0) को- रही...। १०.(का० ) (३०) तही...। (प्र.) तहँ...। ११. (का०) (प्र०) नहीं...। (३०).. रयो हम वै है नहीं.... (सं० पु० प्र०) रौ इत चाहत नहीं...। १२. (३०) तायो...। १३. (प्र. ) तेहि ...।

  • . नि० (वास)पृ०-३७, १०६ । हेतु-लक्षिता-नायिका।