पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४८३

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काव्य-निर्णय माँ वो हैं पखाँन सब मसक न दैहैं कल, रहिऐ पथिक सुभ प्रासँन' - बिचारि के। वि०-"दासजी की यह उक्ति "स्वयंदूतिका नायिका" के निरूपग में है, जो संस्कृत की इस अमर सूक्ति का विस्तृत अनुवाद है, संस्कृत-सूक्ति यथा - "पथिक नात्र सरतरमस्ति मनाक प्रस्तरस्थले ग्रामे । उन्नत पयोधरं प्रेक्ष्य यदि वससि तद्वस ॥" कोई स्वयंतिका नायिका किसी पथिक-रूप नायक से कहती है-“हे पथिक, इस पत्थरों ( मुखों ) से भरे गांव में कहीं किसी के पास चटाई (विछोना) आदि नहीं है, यदि चढ़े ( उभरे ) हुए मेघ (स्तनों ) को देखकर तुम यहाँ ठहरना चाहो तो ठहर जाश्रो।" यही बात-दासजो को ऊपरवाली उक्ति से - स्पष्ट है । यह संस्कृत-उक्ति प्राकृत की देन है, और इसका ब्रजभाषानुबाद किसी • कवि-द्वारा किया हुआ निम्न प्रकार है,- "पथ्थर-थल है पथिक यै, सथ्थर इत न लखाउ । पीन-पयोधर-पेखिकें, चहें भाप डटि जाउ ॥" अथ ब्याजोक्ति लच्छन जथा- वचॅन-चातुरी सों जहाँ, कीजै काज-दुराइ'। सो भूषन 'ब्याजोक्ति' है, सुंनों सुमति समुदाइ ॥ वि०- 'नहाँ वचन-चातुर्य से किसी कार्य को छिपाया जाय, वहाँ 'व्याजोक्ति' होती है। अथवा भाषा-भूषण ( म० जसवंतसिंह) के अनुसार-"व्याजोक्ती, कछु और बिधि, कहै दुरै श्राकार" (वहाँ अपने श्राकार-रति-चिहादि को छिपाकर उसका हेतु कुछ और ही बता कर दिया जाय ) लक्षण होता है। दासजी कृत लक्षण मम्नटादि संस्कृत-अलकाराचार्यों के अनुरूप है, और भाषा- भूषण का लक्षण कुलयानंद-मतानुसार है । यथा क्रमशः- "ब्याजोक्तिश्छमनोद्भिनवस्तुरूपनिगृहनम् ।" जब कोई वस्तु प्राट हो गई हो, उसे छल-से छिपाया जाना - व्याजोक्ति । "म्यजोक्तिरन्यहेतूतम्या यदाकारस्य गोपनं ।" “जहाँ छिपे हुए वृत्तांत्त का किसी प्रकार द्वारा भेद खुल जाने पर उसे . व्याज-युक्त कथन से छिपाया जाय-व्याजोक्ति। पा०-१. (प्र०) भास्रम.... २. (का० ) दुराव.... (३०) दुराउ...। ३.( का०) समुदाव । (३०) समदाउ।