काम्य-निर्णय re कुवलयानंद का लक्षण, काव्य-प्रकाशादि संस्कृत ग्रंथों में कहे गये लक्षणों से कुछ अधिक स्पष्ट है, जिसे श्राकार ( रति-जनित स्पष्ट चिन्हों) ने बढ़ावा दिया है। व्याजोकि का शब्दार्थ है-कपट से, छल से और बहाने से कहना। अतः किसी प्रकार ( वाक्य-चिन्हादि द्वारा ) गुप्त बात ( रति ) प्रकट हो जाने पर उसे कपट (छल, बहाना ) से छिपाया जाना इस अलंकार में वर्णन किया जाता है। यहाँ गुप्त-रहस्य कुछ अवश्य रहना आवश्यक है, जिसके प्रकट होने पर वास्तविक कारण न बता कर अन्य कारण कहते हुए छिपाया जाय । ये लक्षण "सुरति-गुप्ता नायिका" के हैं, यथा- ___ "सुरति-छिपाये जो तिया, सो 'गुप्ता' उर-मान।" गुप्ता-भूत् , भविष्यत् और वर्तमान-रूप तीन प्रकार की होती है। भूत- गुप्ता वह जो-'पहिले पर-पुरुष-रति-जन्य-चिन्हों को छिपाते हुए उनका कोई कल्पित कारण बतलाये। भविष्यत वह, जो होने वाले रति-जनित चिन्हों को पहिले से ही छिपाने की चेष्टा करे और वर्तमान वह, जो वर्तमान में रति के छिपाने की चेष्टा करे । यथा - ____"करति-सुरति परतच्छ सो, सब सों ारति गोह।" ___ व्याजोक्ति, सर्व प्रथम वामन के "काव्यालंकार-सूत्र की वृत्ति में देखने को मिलती है। वहाँ इसका लक्षण है-"व्याजस्य सत्य सारूप्यं न्याजोक्तिः" (न्याज का सत्य के साथ सारूप्य-व्याजोक्तिः)। अर्थात् असत्य (व्याज) के बहाने से सत्य का सादृश्य ( प्रतिपादन करना ) व्याजोक्ति है, जिसे कुछ लोग "मायोकि" भी कहते हैं, (दे० हिं• अनुवाद पृ० २६७), किंतु यह लक्षण उतना स्पष्ट नहीं है जितना कि बाद के प्राचार्यों ने किया है । वामन के बाद व्याजोक्ति रुद्रट और भोजराज को छोड़कर सब ने मानी है। इसलिये यह सर्व-संमति गढार्थ-प्रतीति मूल वर्ग में रखी गयी है। ____ काव्य-प्रकाश में प्राचार्य मम्मट इसे अपन्हुति से पृथक् करते हुए कहते हैं- "इसे अपन्हुति नहीं समझना चाहिये, क्योंकि उस (अपन्हुति ) में प्रकृत- अप्रकृत वस्तुओं की समता का भी कथन रहता है, बो कि यहाँ असंभव है। श्री मम्मट कृत इस व्याजोक्ति और अपन्हुति की प्रथकता पर विश्वनाथ बी ( साहित्य-दर्पण में) कहते हैं कि "अपन्हुति में जिस बात को छिपाया जाता है, उस ( बात ) का प्रथम कथन कर फिर निषेध-पूर्वक उसे छिपाया जाता है। छेकापन्हुति में भी अपनी कही हुई बात का ही अन्य-अर्थ कर उसे निषेध-पूर्वक छिपाया जाता है, पर ब्याजोक्ति में ये बात नहीं है । यहां जिस बात को छिपाया २९
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