४५२ काम्य-निर्णय , पी को बिनम कोड 'दास' इहि नेम- परपंच करि पंच में सुहागिनि कहाई है। हाँती करि हां-ती मोहि ऐसी नौ सुहाँती, भेष कंत है तकत ये कैसी चतुराई है।" व्याजोक्ति का उदाहरण भारती-भूषण ( केडिया) में सुंदर दिया गया है, यथा होरी ( गेय पद )- "बखि हम को मुसिकांनी, कहा ते मन में जॉनी। अखियाँ खंजन-गुन-गंजन की, भंजन-भोप-उहाँनी॥ पाँन-पीक की लीक पलक पै, झलक रही रस-साँनी । -पलक अलि, कत मरुझानी। अंजन गयौ रुदैन ते पलकन, कर-मेंहदी लपटॉनी। ललक मयूर परे अलकन पै, चरन-चोंच गहि तानी॥ -व्याल-अनिता उन जाँनी॥" अथ परिकर-अलंकार लच्छन जथा- परिकर, परिकर-अंकुरौ, भूषन जुगल सुबेस । साभिप्राइ बिसेसनों, साभिप्राइ बिसेस ।। बननीय के साज कौ, नॉम बिसेसँन जाँन । सोहैसाभिप्राइजहँ परिकर भषन मॉन ।। वि०-"दासजी कृत 'परिकर' और 'परिकरांकुर' इस उल्लास के अंतिम अलंकार हैं । अतएव आपने इन दोनों का, जो प्रायः एक ही तुल्य-वल के अलं. कार है, प्रथम साथ-साथ वर्णन कर फिर इनकी भिन्नता दिखलायी है । साथ-ही परि- कर और परिकरांकुर रूप इन युगल अलंकारों के प्रति प्रथम मोटे रूप से इस प्रकार व्याख्या की है कि "जहाँ साभिप्राय विशेषण हों वहाँ 'परिकर' और 'जहाँ सामि- प्राय-विशेष्य हों वहाँ 'परिकरांकुर' होता है। यह दोनों की मूल-व्याख्या है। इसके बाद उक्त अलकारों को और भी स्फुट करते हुए कहते हैं-"वर्णनीय वस्तु की सज्जा का नाम विशेषण है, इसलिये जहाँ यह साभिप्राय (कुछ विशेष श्राशय लिए) हो, वहाँ 'परिकर' अलंकार मानना चाहिये। परिकर को रुद्रटादि सभी अलंकाराचार्यों ने माना है, परिकरांकुर को नहीं। परिकरांकुर को चंद्रालोककार ने माना है । अस्तु, परिकर प्रथम अलंकार होने के पा०-१. (का०) (३०) (स'० पु० प्र०) तो...।
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