पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय ४५३ कारण रुद्रट कृत चार--वास्तव, श्रौपम्य, अतिशय और श्लेष-वर्ग के विभाजन में वह प्रथम वर्ग 'वास्तव' में रखा गया है । रुग्यक-मंखक ने जब संपूर्ण अल- कारों को सज्जा - "सादृश्य-गर्भ, विरोध गर्भ, श्रृंखला बद्ध, तर्क-न्याय-मूल, काव्य-न्याय-मूल, लोक-न्याय मूल और गूढार्थ प्रतीति मूल नामक सात श्रेणियों में विभाजित की तब 'परिकर' को आपने सादृश्य वा श्रौपम्य गर्भ के अवांतर भेद गम्यमान औपम्य के अंतर्गत 'विशेष-वैचित्र्य" में समासोक्ति के साथ और श्रापके बाद किन्हीं अन्य प्राचार्य ने "अभेद प्रधान अध्यवसाय मूलक वर्ग के तीसरे भेद "अर्थ-वैचित्र्य प्रधान वर्ग में रखा है। यहाँ साथ में 'परिकरांकुर' की गणना भी कर ली गयी है इसके बाद इन दोनों-परिकर और परिकरांकुर की विशेष विलक्ष एता को ध्यान में रख 'उक्ति चातुर्य-मूल वर्ग में गणना की गयी। परिकर के संबंध में काव्य-प्रकाशकार कहते हैं-"विशेषणौर्यत्साकूतैरुक्तिः 'परिकरस्तु सः" अर्थात् जहाँ अभिप्राय विशिष्ट विशेषगों के साथ (विशे-य) उक्ति की जाती है, वहाँ परिकर अलकार होता है। परिकर के शब्दार्थ -"परिवार, शोभा बढाने वाली सामिग्री के साथ, यह अनुकूल परिभाषा है। परिकर का उप- करण (उत्कर्षक वस्तु, जैसे राजात्रों के छत्र-चमरादि) अर्थ भी संस्कृत के 'शब्द कल्पद्रम' कोष में मिलता है। इसलिये परिकर में ऐसे साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग किया जाता है, जो वाक्यार्थ के उत्कर्षक हों-पोषक हो । विशेषण के अमि- प्राय युक्त होने के कारण कहने के ढंग में एक चमत्कार पेदा हो जाता है, जो इस अलकार का प्रयोजन है । साधारण रूप से दिये गये विशेषण वैसा नहीं कर पाते। यहाँ शंका की जाती है-अभिप्राय रहित निष्प्रयोजन विशेषण का होना काव्य में 'अपुष्टार्थ' दोष माना गया है, इसलिये साभिप्राय विशेषण होना उक्त दोष का निराकरण (अभाव) मात्र है, ऐसी स्थिति में 'परिकर' की अलकार रूप में क्या आवश्यकता ? इस पर प्राचार्य मम्मट कहते हैं कि परिकर में एक विशेष्य के अनेक विशेषग होते हैं अतएव परिकर की यही चमत्कार पूर्ण खूबी है।" पंडितराज जगन्नाथ (रसगंगाधर में) कहते हैं- “यद्यपि एक से अधिक विशेषण होने पर व्यंग्य की अधिकता होने के कारण चमत्कार अधिक अवश्य बड़ जायगा, पर यह नहीं कि जब तक एक से अधिक विशेषण न हों तब तक यह अलंकार नहीं, यहाँ एक भी साभिप्राय विशेषण होने पर 'परिकर' अलंकार बन जायगा। पंडितराव इतने पर-ही प्रल (चुप) नहीं हो जाते, वे प्रामे कहते हैं- "साभिप्राय विशेषण होना, दोषाभाव है,ठीक है, किंतु अपुष्टार्थ-दोष के प्रभाव का ।