पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४८९

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काव्य-निर्णय विषय और परिकर का विषय भिन्न-भिन्न हैं, जैसे—सौंदर्य-युक्त उत्कर्षक विशेषण होना परिकर का और चमत्कार के अपकर्ष का अभाव, अपुष्टार्प दोष के अभाव का विषय है । ये पृथक-पृथक विषयावलंबो धर्म ( लक्षण ) यदि संयोग-वश एक ही स्थान पर एकत्रित हो जाय तो कुछ हानि है । उपधेय और उपाधि संकरा- संकर होते ही हैं, जैसे- "ब्राम्हण के लिए मूर्ख होना दोष और विद्वान् होना दोष का अभाव और गुण है। इसी प्रकार परिकर में साभिप्राय विशेषणों का होना अपुष्टार्थ दोष का अभाव भी है और चमत्कार पूर्ण होने के कारण अलकार भी । जैसे-समासोक्ति गुणीभूत व्यंग्य होते हुए भी अलकार हैं इ यादि .. । परिकर के विशेषणों में जो अभिप्राय निहित हैं, वे गौण व्यंग्याथ होते हैं, वहाँ विशेषणों का वाच्यार्थ-ही प्रधान रहता है । यह गौण व्यंग्य (गुणाभूतन्यं- ध्य) दो प्रकार का, अर्थात् वह कहीं वाच्यार्थ का उत्कर्षक और कहीं 'वाच्य- सिध्यंग' होता है।" अथ परिकर-उदाहरन जथा- भाल में जाके कलानिधि है, वौ' साहिब ताप हमारे हरेगी। अंग में जाके बिभूति भरी, बौ' संपति भोंन में भूरि-भरेगी ।। घातक हे जो मॅनोभव कौ, मॅन'-पातक वाही के जार' जरगौ। 'दास' जो सीस पैगंग-धरे रहै, ताकी कृपा कहौ को न तरंगौ।। वि०-"परिकर का उदाहरण 'गोकुल नाथ कवि' कृत भी सुंदर है, यथा- "भावति-ही जमुना-तट ते, हरि सोहि मिल्यौ ठकुरोइन मेरी। तानि ते करसाइल-लों, घुमरे, न परै पलको कल ऐरी॥ 'गोकुलनाथ' सुरस्सर-साधि, रच्यो यह मैं बसि मेंन-अहेरी । घाइल क्यों न कर करिहाइल, पाँइ परों बलि पाइल तेरी ॥" पा०-१. (का०)(३०) (प्र०)(स० स०) वह . । (ह० जु० ह०) सोइ...। २. (का०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) (स० स०) हमारी...। (३०) (ह० जु० ह०) हमारी...। ३. (का०) (३०)(सं० पु० प्र०) वहै (वह) भोन में संपति भूरि । (प्र०) (सू० स०) विभूति भरी वह भोन में संपति...। (ह० जु० ह०) भरी, रहै भोंन में संपति . । ४. (ह० जु० ह०) मम...। ५. (१० ज००) ताही...। ६. (३०) जारो...। (रा० पु. नी० सी०) जोर...। ७. (का०) (स० स०) ज...। (३०) जु ..। . (का०) (प्र०) (२० स०) कहु . ।

  • ह० जु० १०, पृ० २७, १६ । स० स० (ला० म० बी०) पृ० २२, २ । का० काल

(रा०प० सिं०) प० २७५ ।