अथ सहकाँ उल्लास सुभावोक्ति-अलंकारादि वरनन जथा- 'सुभावोक्ति' 'हेतू'-सहित, जो' बहु-भाँति 'प्रमॉन' । 'काब्यलिंग'-'निरउक्ति" गॅनि, औ 'लोकोक्ति' सुजॉन ।। पुंनि 'छेकोक्ति' बिचारि के, 'प्रत्यनीक'-सँम तूल । 'परिसंख्या' 'प्रश्नोत्तरौं', दस बाचक-पद-मूल ।। वि०-"दासजी ने इस उल्लास में-"स्वभावोक्ति, हेतु, प्रमाण, काव्यलिंग, निरुक्ति, लोकोक्ति, छेकोक्ति, प्रत्यनीक, परिसंख्या और प्रश्नोत्तर दस अलंकारों को वाचक-पद की प्रबलता तथा मुख्यता के कारण एक साथ वर्णन किया है । संस्कृत- अलंकार-ग्रंथों में ये विभिन्न-वर्गों में हैं। जैसे--प्रथम रुद्रट-द्वारा "स्वभावोक्ति, परिसंख्या और हेतु तथा उत्तर 'वास्तव वर्ग में. प्रत्यनीक और उत्तर जो वास्तव वर्ग में श्रा चुका है औपम्य वर्ग में और हेतु को पुनः अतिशय वर्ग में माना गया है। रुय्यक द्वारा किये गये विभाजन में भी चार अलकारों को-प्रथम काव्यलिंग को तर्क न्याय वर्ग में, द्वितीय ‘परिसंख्या को काव्य-न्याय वर्ग में तथा प्रत्यनीक और उत्तर को 'लोक न्याय मूल' वर्ग में जो न्याय मूल वर्ग के ही अवांतर भेद है, माने गये हैं । इस प्रकार रुद्रट-द्वारा मान्य-स्वभावोक्ति, परिसंख्या, हेतु, उत्तर (प्रश्नोत्तर) और प्रत्यनीक पांच तथा रुय्यक द्वारा मान्य-काव्यलिंग, परिसंख्या, प्रत्यनीक और उत्तर चार अलकार हैं। इनके बाद जो और विभाजन मिलता है उसमें-परि- संख्या और प्रत्यनीक न्याय मूलक-वाक्य-न्याय मूल में, क.व्यलिंग और हेतु 'तर्क-न्याय मूल में, उत्तर (प्रश्नोत्तर ) और लोकोक्ति लोक-न्याय मूल वर्ग में तथा स्वभावोक्ति वर्णन-वैचित्र्य-प्रधान वर्ग में विभक्त हैं। यहाँ सात अलकारों का विभाजन है । एक और विभाजन मिलता है, उसमें काव्यलिंग, परिरंख्या, प्रत्यनीक, उत्तर और हेतु-अलकारों को न्याय-मूल वर्ग में, निरुक्ति गूढार्थ-प्रतीत- मूल वर्ग में लोकोक्ति और छेकोक्ति 'उक्ति-चातुर्य-मूल वर्ग में और स्वभावोक्ति पा०-१. ( का० ) (३०) (प्र.) जे .. २. ( का० ) (३०) (सं० पु० प्र०) ..मुनिरक्ति गने...अई...।
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