४६५ काव्य-निर्णय मनुपलब्ध संभव कहूँ, कहुँ ले भरथापत्ति'। कबि 'प्रमॉन' भूषन कहें बातजु बरने सति ॥ वि०-"जहां किसी अर्थ का ( यथार्थता का अनुभव ) कहीं प्रत्यक्ष, कहीं अनुमान, कहीं उपमान, कहीं बड़ों के वाक्य (शब्द), कहीं आत्म-तुष्टि, कीं अनुपलब्ध, कहीं संभव और कहीं अापत्ति-रूप प्रमाणों से जाना बाय, वहाँ 'प्रमाणाल कार' कहते हैं। कान्य-ईश्वरादि निर्णय के लिए 'प्रमाण' की आवश्यकता कही जाती है। अतएव वैशेषिक-शास्त्रकार 'कणाद' मुनि और बौद्धाचार्यों ने प्रथम प्रमाण के दो ही भेद-“प्रत्यक्ष' और 'अनुमान" माने हैं। इनके बाद भगवान कपिलदेव ने सांख्य में 'प्रत्यक्ष' 'अनुमान' और 'शब्द' तीन प्रकार के प्रमाण कहे हैं । इसी प्रकार-महर्षि गौतम ने अपने 'न्याय-शास्त्र' में प्रत्यन, अनुमान शब्द के अतिरिक्त 'उपमान' को भी प्रमाण का भेद माना है। मीमांसा-शास्त्र में 'एकदेशी प्रभाकर' ने महर्षि गौतम के चार-प्रत्यक्ष, अनुमान, शन्द और उपमान के अतिरिक्त अर्थापत्ति-रूप प्रमाण का भी उल्लेख किया है। तदनंतर मीमांसक भट्ट और वेदांत-शास्त्र के भाष्यकारों में अद्वतवादियों ने प्रत्यक्षादि अर्थापत्ति के बाद एक छठवाँ 'अनुपलब्धि' प्रमाण भी माना है और अंत में भगवान वेदन्यास जी ने पुराणों में-"प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्था- पत्ति, अनुपलब्धि, संभव और 'ऐतिह्य' नाम के आठ प्रमाण कहे हैं। ऐतिह्य में लोकोक्तियों के अतिरिक्त अन्य विशेषता नहीं होती, इसलिए दासजी ने इसके स्थान पर "अात्म-तुष्टि" लिखा है, जो उचित है ग्राह्य है। चार्वाक एक ही 'प्रत्यक्ष' प्रमाण को मानते हैं। प्रमाण का साधारण अर्थ है-वह साधन जिसके द्वारा किसी वस्तु का यर्थार्थ ज्ञान हो, वह साधन जिसके सहारे कोई बात सिद्ध की जाय, अथवा वह सबूत जिसका वचन या निर्णय यथार्थ वा प्राप्त (प्रमाणिक) माना जाय । इसके अतिरिक्त प्रमाण का अर्थ-माप, परिमाण, मात्रा, इयत्ता, सीमा और अवधि भी माने जाते हैं, यथा-"प्रमाणं हेतु मर्यादाश स्त्रेयत्ताप्रमातृषु" (अ० को०-३, ३, ५३)। काव्य-साहित्य में इसका लक्षण---"सनिकर्षमवंचख्युज्ञान प्रत्यक- मुख्यते", अथवा- "कहिऐ बचन प्रमॉन अब, वेद साख जुत होइ। सत्य बन सब भली, पुरी कहत नहिं कोई ॥" पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) रयापत्त्य । २. (का०) (३०) (प्र०) सत्य। ।
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