पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५०४

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काव्य-निर्णय ४६६ प्रेमियों की नन्ज पहचानते थे, वह जानते थे कि "अपने बावले" को कैसे सम- झाया जाता है-रस-लोलुप-कविता-प्रेमी सत्संगति की महिमा को किस रूप में सुनना पसंद करेंगे। रात-दिन जो चीजें प्रेमियों की नजर में समायी रहती हैं, उनकी ओर इशारा करके ही उन्हें यह तत्व समझाना चाहिये । कवि के लिये यही उचित है । नीरस उपदेश पर रसिक-रोगी कब कान देता है-सुनता भी नहीं, आचरण करना तो दूर रहा । ___कवि नब विषयासक्त प्रेमी को विषयासक्ति का दुष्परिणाम समझाना चाहता है तो उसके लिए किसी पतित भक्त या योग-भ्रष्ट ज्ञानी का दृष्टांत (प्रत्यक्ष की भाँति) देने को वह इतिहास के पन्ने पलटने नहीं बैठता, वह उस विषयो की दृष्टि में बसी हुई चीज को सामने (प्रत्यक्ष में) दिखाकर झटपट बोल उठता है कि देखी, विषयासक्ति की दुरंतता ! "स्नेहं परित्यज्य निपीय धर्म कांताकचामोआपथं प्रपन्नाः । नितंब संगारपुनरेव बहा महो दुरंता विषयेषुसक्तिः॥ -सतसई-सौष्ठव (पद्मसिंह) विहारी के इस दोहे में अलकारों का भी काफी मुरमुट है। श्लेप से पुष्ट मुद्रलकार तो चमक-ही रहा है, 'प्रत्यक्ष-प्रमाणाल कार भी अपनी सज-धज दिखा रहा है। प्रत्यक्ष-प्रमाण रूप किसी कवि की यह सूक्ति भी सुंदर है- "लखन सुनों, जिहि कारनें, होत जग्य-धनु-धारि । मन मानत है देखि यै, है वो जनक दुलारि॥" दुतिय प्रमान-अनुमान उदाहरन जथा- यै पाबस तँम, साँझ नहिं, कहा दुचित मति भूलि । कोक असोक बिलोकिऐ, रहे कोकनँद फूलि ।। वि०-“कविवर ग्वालजी कृत नीति-संमत 'अनुमान' का यह उदाहरण (छंद) भी सुंदर है, यथा- "जाकी खूब-खूबी खूब-खूबी यहाँ चारन में, ताकी खूब-खूबी, खूब-खूबी नौ भगाहनों। जाकी बदजाती, बदजाती यहाँ चारन में, ताकी बदजाती, बदजाती नौ सराहना ॥ 'वान कवि' तेरें यही परसिद - सिद्ध, पही परसिद्ध जाकी इहाँ-वहाँ सराहना । . . माली यहाँ चाहना है बाकी बहो चाहना है: बाकी यहाँ चार-ना है, ताकी वहाँ चाड-तां ॥"