पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५२३

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४८८ काव्य-निर्णय ___ परिसंख्या–परि + संख्या दो शब्दों से बना है, जिसमें 'परि' उपसर्ग है तथा उसके कई अर्थ हैं। यह परि जिस शब्द के साथ जुड़ जाता है उसकी अर्थ - वृद्धि में सहायक बन जाता है, अर्थात् उसके अर्थ की वृद्धि करता है । परिसंख्या में उस (परि) ने नियम भाव की वृद्धि की है। धर्म-प्रथों में 'विधि, नियम और परिसंख्या प्रधान शब्द माने गये हैं। प्रस्तु, विधि का अर्थ वहाँ "क्या करणीय है, केवल यही बतलाना किया गया है । साथ-ही, कई प्रकार से हो सकने वाले कामों में एक का ऐसा श्रादेश दे जिससे दूसरे का निषेध समझा जाय, उसे 'नियम' तथा-'जिसमें निषेध-ही किया जाय उसे परिसंख्या कहा है । अतएव जहाँ प्रश्न हुए, अथवा बिना प्रश्न हुए कोई बात उसी के सदृश अन्य बातों को व्यंग्य या वाच्य से निषेध करने के अभिप्राय से कही जाय तब वहाँ परिसंख्या- अलंकार कहा जाता है । यह कही हुई बात अवश्य-ही अन्य प्रमाणों से सिद्ध तथा प्रसिद्ध होनी चाहिये । सेठ कन्हैयालाल पोदार (अलंकार-मजरी में ) परिसंख्या का अर्थ-अन्यत्र वर्जन (निषेध) मान कर कहते हैं कि "परिसंख्या अलंकार में अन्य प्रमाणों से जानी हुई जो बात प्रश्न के पश्चात् या बिना-ही प्रश्न कही जाती है, अथवा दूसरा कुछ प्रयोजन न होने के कारण उसी के समान किसी दूसरी बात के निषेध के लिए कही जाती है तथा यह निषेध कहीं प्रतीयमान ( व्यंग्य ) और कहीं शब्द-द्वारा स्पष्ट किये जाने पर 'परिसंख्या चार प्रकार का होता है ।" जैसे-१. प्रश्न पूर्वक प्रतीयमान निषेध, २. प्रश्न पूर्वक वाच्य (शब्द-द्वारा) निषेध, प्रश्न-रहित प्रतीयमान निषेध और प्रश्न-रहित वाच्य निषेध-इत्यादि..........." यदि इसे और भी स्पष्टरूप से कहा जाय तो, इस अलंकार के प्रथम प्रश्न पूर्वक, विना प्रश्न दो भेद तदनंतर इन दोनों के वाच्य तथा व्यंग्य से निषेध होने के कारण और भी दो भेद बन जाते हैं, जैसे—प्रश्न पूर्वक व्यंग्य, प्रश्न पूर्वक वाच्य, बिना प्रश्न व्यंग्य और बिना प्रश्न वाच्य-इत्यादि.........। परिसंख्या का सर्व प्रथम उल्लेख रुद्रट के काव्यालंकार (संस्कृत) में मिलता है, इनके बाद मम्मट और रुय्यक के प्रथों में...... प्राचार्य श्रीमम्मट ने इसका लक्षण इस प्रकार माना है, यथा- _ "किंचित्पृष्टमपृष्टं वा कथितं यत्प्रकल्पते । तागन्यव्यपोहाय परिसंख्या तु सा स्मृता ॥" अर्थात् “जो कोई बात पूछी गयी हो या न पूछी गयी हो, पर शन्दो-द्वारा (अवश्य ) प्रकट की गयी हो तथा किसी अन्य प्रयोजन के न होने से उसके तुल्य किसी अन्य वस्तु के व्यवच्छेद (अपलाप) रूप में परिणत हो तो वर्ग