पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५२४

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काव्य-निर्णय ४८६ 'परिसंख्या'........." इस लक्षण के बाद आप विशेष कारिका रूप में कहते हैं कि “यहां पर वस्तु का कथन प्रश्न-द्वारा अथवा बिना प्रश्न किये हुए भी हो सकता है और इन दोनों दशाओं में अपलापित ( निषेध, नामंजूर सत्य को छिपा कर) वस्तु व्यंग्य या वाच्य-द्वारा कही जा सकती है ( काव्य-प्रकाश-हिंदी व्याख्या )।" इसी बात को लक्षण को, साहित्य-दर्पण में भी शब्दांतर से दुह- राया गया है। चंद्रालोककार उसका भिन्न लक्षण-"परिसंख्या निषिध्यकमन्यस्मि- वस्तुयंत्रणं" (शब्द-श्लेष के द्वारा प्रकट किये हुए किसी दो पदार्थों को समान गुण का एक पदार्थ में अभाव दिखलाकर दूसरे में उसका आरोप करना-परिसंख्या) कहा है । यहाँ परिसंख्या विभिन्न भेदों में नहीं एक रूप में हैं। ब्रजभापा के अलंकाराचार्यों में चिंतमणि जी के अतिरिक्त प्रायः सभी ने इसे एक प्रकार का-ही मान इस प्रकार लक्षण कहे हैं, यथा- "परिसंख्या--इक थल बरजि, दूजे थल हैहराइ।" -भाषा-भूषण "भौर और ते मॅटि कछु, वात एकही और।" -मतिराम "एक में बरजि जहाँ दूजे थल थापै बस्तु......" "करि निषेध इक वस्तु को, थप जु इक थल-माँहि ।" -पभाकर और श्री चिंतामणि त्रिपाठी कहते हैं- "एक वस्तु जु मैंनेक थल, प्रापत एकहि बार । नियमित कीजै एक थल, परिसंख्यालंकार । एक बस्तु जो एक - ही - ठौर नेम जो होइ । परिसंख्या ता सों कहैं, कवि-पंडित सब कोह ॥ प्रस्न-पूर्व जो एक पुनि, ताते-भिन्न जु और । परिसंख्या (विधि प्रथक,कहत सुमति-सिरमौर ॥ बर्जनीय इत जो कछू, कहूँ सब्द-गत होई। कहूँ अर्थ-बल पाईऐ, या विधि दोऊ दोह॥ यौ भनँछयौ कथन, कछु बस्तु को होइ । ऐसौ औरैन-हेत , परिसंख्या कहि सोई॥ परिसंख्यालंकार में, कहत सन्द-गत कोह। का अर्थ बन पाईऐ, जो सँम नाही हो।