४६२ काव्य-निर्णय उदाहरण में भी सारोपा गौणी लक्षणा के कुदन से जड़ा परिसंख्या-अलंकार कोकिल-खंजनादि से चकोर में अधिक प्रीति के कथन में सुंदर बन गया है। अथ प्रस्नोत्तर-अलंकार लच्छन जथा- छोरि वा करो, वा कयौ, पिसनोत्तर' कहि जाइ। "पिसनोत्तर' वासों कहें, ज' प्रवीन कबिराइ ॥ वि०-"जहाँ विविध प्रश्नों के विविध उत्तर दिये जाय वहाँ दासजी ने प्रश्नोत्तर अलंकार माना है। संस्कृत के अलंकार-मंथों में इसे केवल 'उत्तर' नाम से-ही ग्रहण किया है। वहाँ 'प्रश्नोत्तर' तो नहीं, पर 'उत्तर' को रुद्रट से लेकर रुय्यकादि सभी अलंकाराचार्यों ने अपनाया है। मम्मट ने इसका उत्तर का लक्षण इस प्रकार दिया है-"उत्तरश्रुतिमात्रतः" । "प्रश्नस्मोचयनं यत्र क्रियते तत्र वा सति । असकृयदसंभाव्यमुत्तरं स्यात्तदुत्तरम् ॥" 'जहाँ केवल उत्तर-ही के सुनने से पर ( दूसरे ) के प्रश्न की कल्पना कर ली जाय, अथवा बारंबार प्रश्न करने पर भी जहाँ उत्तर असंभ जान पड़े, वहाँ- 'उत्तरालंकार' कहना चाहिए।" अागे पुनः मम्मटाचार्य कहते हैं कि “इसे काव्यलिंग न समझना चाहिए, क्योंकि यहाँ उत्तर रूप वाक्य का हेतु सिद्ध नहीं होता । साथ-ही उत्तर, प्रश्न के उत्पन्न करने का हेतु (निमित्त कारण ) भी नहीं है और यह अनुमान (अलंकार ) में भी नहीं गिना जा सकता, क्योंकि यहाँ एक-ही धर्मी में रहने पर साध्य (प्रतिपाद्य वस्तु ) और साधन ( हेतु ) का भी निर्देश नहीं किया गया है, अतएव इन कारणों से उत्तर एक पृथक् अलंकार है।" प्रश्न पूर्वक परिसंख्या में तत्तुल्य किसी अन्य वस्तु के अपलाप (निषेध ) से तात्पर्य रहता है, यहाँ अर्थ-ही में तात्पर्य को समाप्ति हो जाती है, अस्तु यह परिसंख्या से भी पृथक् है।" उत्तर के दो भेद करते हुए श्राप पुनः कहते हैं कि "प्रश्न के पीछे जन- साधारण के ज्ञान-गम्य न होने के कारण जो असंभव उत्तर हो तो वह भी उत्तरालंकार है और ये प्रश्न तथा उत्तर यदि बारंबार कहे जाय तो यह दूसरा 'उत्तर' कहा जायगा। प्रश्नोत्तर एक बार-रूप कहे जाने में कोई चमत्कार नहीं, अपितु बार-बार कहने में ही उसका चमत्कार है। कोई इन भेदों को "उन्नीत प्रश्न" ( कई बार प्रश्न किये जाने पर कई बार अप्रसिद्ध-जो समझ में न आये, . पा०-१. (का०) प्रश्न-उतर.... २. (३०) जो..।
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