४४१ काव्य-निर्णय . . "कॉनन-वारिन में कुटिल, केवल कॉमिनि-नेन । रहे मैंनुज-सिय-सहित जब, रोम कियो बन ऐंन ॥" . और दासजी के तीसरे उदाहरण के सहश रघुनाथ कवि का यह उदाहरण भी सराहनीय है, यथा- "पाए जुरि जाँचिबे को जाचक जहाँ-लों रहे, ___एहो 'कवि रघुनाथ' माज तीनों थर में। ऐ ते मान-दान तिन्हें भूप दसरथ दीन्हे, देति न दिखाई कहूँ कोऊ सोंज धर में ॥ बसन के नाते पास बास कोंसिला के एक, भूषन के नाते नथ-नाँक छला कर में। घोरे-हाथी चिन के रहे चित्रसारी-माँझि, रॉम के जनम रहे दाम दफतर में ॥" कवि विहारीलाल का यह 'दोहा' भी काध्यलिंग से विभूषित होते हुए भी परिसंख्या के जिलों से अधिक चमक रहा है, यथा- "पत्रा-ही तिथि पाइयतु, वा घर के चहुँ पास । नित-प्रति न्यो-ही रहत, भाँमन भोप उजास ॥" जौ कहिऐ सुखदायक है, तिम-जौनि परी सरदौ-रितु फीको । फेरि लखी हिय-हेरि हिमंत, अनंत बढ़ावनि है दुख-ही की। प्यारी सखी तुम को पैहचाँनि, सु बात जनावति हों निज जी की। मोहि सखी, निसि-बासर-हूँ, रितुराज ते लागति पाबंस नीकी ॥ पालि घंने दिन-सों, हित-सों, पिंजरान ते कोकिल-कीर-उड़ाबत । जे मॅन-रंजन खंजन और कपोत .के .पोत नहीं मन - भावत । जौ बरओं तौ न मानें कहूँ मॅन, भाप न लाजत मोहि बजावत । पीय को कोंन सुभाव परयौ, निसि-बासर चोर-चकोर-चुगाबत ॥" ये दोनों ( सवैया रूप) उदाहरण 'प्रताप' कवि विरचित हैं। प्रथम 'परोदा' परकीया नायिका का और दूसरा स्वाधीन-पतिका नायिका का सखी प्रति-उक्ति रूप में है । प्रथम में शुद्ध सारोपा-लक्षणा से पुष्ट पाँचों ऋतुनों से श्रेष्ठ पावस को सुंदर ठहराना ( पावस में वृक्षादि सघन हो जाने के कारण पर-पुरुष मिलाप अधिक सहन हो जाता है) रूप परिसंख्या अधिक सुंदर बन गयी है । इसी प्रकारे दूसरे
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५२६
दिखावट