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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५४९

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५१४ काव्य-निणय क्रमपूर्वक अनेक में हो, वा पायी जाय, अथवा को जाय-उत्पन्न की जाय, वहाँ 'पर्याय' अलंकार मानना चाहिये ( एक वस्तु क्रमेणानेकस्मिन्भवति क्रियते वा स पर्यायः)। अागे श्राप पुनः कहते हैं-"अम्बस्ततोऽन्यथा । अनेकमेकस्मिन् क्रमेण भवति क्रियते वा सोऽन्यः" अर्थात् एक और भी भिन्न लक्षण वाला पर्याय होता है, जिसमें अनेक वस्तु एक ही आधार पर क्रम-पूर्वक काल-भेद से हों, अथवा ( उत्पन्न ) की जाय.........। साहित्य-दर्पणकार कहते हैं - "क्वचिदेकमनेकस्मिन्नेक चैकग क्रमात् । भवति क्रियते वा चेत्तदा 'पर्याय' ईष्यते ॥" एक वस्तु अनेकों में, वा अनेक वस्तुएँ एक में क्रम से हों, या की जाय- कही जॉय, वहाँ पर्याय है । इनमें अाधार कहीं संहत (मिला हुश्रा) और कहीं असंहत (बिना मिला हुश्रा) रूप से होता है । साथ-हो ( जैसा पूर्व में लिखा जा चुका है ) यहां एक वस्तु ( की स्थिति ) अनेकों में क्रम से की जाती है, एक- ही समय में नहीं। यह विशेषालंकार से ( इसकी ) भिन्नता है और बदला न होने के कारण 'परिवृत्ति' से (भी) भिन्नता है।" ब्रजभाषा-प्रथों में पर्याय के दो ही भेदों का उल्लेख मिलता है, जैसा कि चिंतामणि जी कहते हैं - “क्रम-रम एक अनेक में, एक-हि माँहि अँनेक । है प्रकार 'परजाइ' यों, सत कवि करत बिबेक ॥" प्रायः यही लक्षण-"क्रमशः एक में अनेक और अनेक में एक" अापके बाद के प्राचार्यों ने भी अपनाया है । अर्थात्, उक्त दो ही भेदों का कथन किया है।" अथ प्रथम परजाइ उदाहरन जथा- पाँइन को तजि 'दास' लगी तिय-नेन बिलास कर चपनाई। पीन नितंब-उरोज' भए, हटि के कटि जात भई तँन-ताई ॥ बोलॅन-बोच बसी सिसुता, तन जोबन की गह फैलि दुहाई। अंग-बढ़ी' सु बढ़ी अब तो, नबला छबि तो बढ़ती पर आई ।। रह्यो कुतूहल देखियो, देखत मूरति-मेंन । पलकन को लगियो गयो, लगी टकटको नेन ॥ पा०-१. (वे. ) उरोज-नितब भए । २. (का० ) (प्र.) बढ्यो सु बढ्यौ भन तो, ३. (३०) की ..