पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५५१

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५१६ काव्य-निर्णय साँसरी-सी, छरी-सी है सर-सी सरी-सी भई, सीक-सी है, लीक-सीह, बाँध'ह-सी, बाँधी-सी। "बार-सी, मुरारि तार-सी लों तजि मावति हो, जीबति-ही है वो प्रॉनाजॉम साधी-सी। अस्य तिलक "इहाँ उपमाँ संकर है।" पुनः उदाहरन जथा- सब-जग-ही हेमंत है, सिसिर सु छाँहन मीत । रितु बसंत सब छाँड़ि के, रही जलासै सीत ।। अस्य तिलक हेमंत में सीत सब जग में, सिसिर में सीत छाँह के नीचे और बसत में सीत सब को छाँडिक जलासै ( नदी-तालाब) में रहै है। अथ 'विकास' परजाइ (पर्याय) को उदाहरन जथा- लाली हुती प्रियाधर', बढ़ी हिए-लों हाल । अब सुबास तंन सुरंग करि, ल्याई तुम पै लाल ।। असुबन ते वो नँद कियौ , नँद ते कियौ समद्र । अब सिगरौ जग जल-मई, करन चहत है रुद्र ।। हम-तुम एक हुते तन-मन फेरि-तुम- . पीतम कहाए मोहिं प्यारी कहिबाई है। सोहू गयो, पति-पतिनी कौ रहथौ नाँतौ पुँनि, पापिनि हों रही'तुम उत' दीठि-ठाई है। पा०-१. (३०) बाँधी के बाँधी- (सं० पु० प्र०) बाँधी-सी है बाँधी-|२. (में० ) मुरारि-सी लो जीबत तजोमें अजां, जीवति । ३. (प्र० ) में...। ४. ( वे०) में । ५. ( रा० पु० प्र०) रहयौ । ६. ( का० ) (३०) (प्र०) प्रियाधरहिं"। ७. (३०) आई."। ८. (का० ) उहि "I (40) (प्र०) वहि "18. ( का० ) (३०)(प्र०) किए। १०. ( का० )(प्र.) किट । ११. ( का० ) (३०)(प्र०) (सं० पु० प्र०) कहायौ । १२. ( का० ) (प्र० ) कहवाइ है । १३. ( का० ) (प्र०) हों याही तुम्हें। (में) हों हयाई तुम्हें उत-ही दिढाई है। १४. (प्र०) तुम्हें बात न दिदार है । ( का०) दीठ ठाइ है।