पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५५२

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५१७ काव्य-निर्णय द्वै दिन-लो'दास' रही पतियों सँदेस-मास, हाइ-हाइ ताहू हठि' रहयौ ललचाई है। प्रॉननाथ, कठिन पखाँन-हूँ-ते प्रॉन अब, कोंन जॉन कौन-कोन दसा दरसाई है। वि०-"दासजी ने इन तीनों उदाहरणों में विकाश ( एक में अनेक की स्थिति ) पर्याय की छटा सुंदर रूप से दरसायी है । प्रथम उदाहरण में लाली अनेक श्राश्रयों में स्वतः स्थिति है, दूसरे में अन्य-द्वारा स्थिति है, अर्थात् आँसुत्रों का प्राश्रय क्रमशः नद, समुद्र तथा संपूर्ण जगत बताया गया है, जो स्वतः स्थित नहीं है । तीसरे उदाहरण में भी यही बात है। ____ अन्य-द्वारा अनेक श्राधार (श्राश्रय ) रूप पर्याय का उदाहरण कविवर 'ग्वाल' कृत भी सुदर बन पड़ा है, यथा- "मेष, वृष, मिथुन तवायन के त्रासँन ते, सीतलाई सद तैखाँनन में ढली है। तजि तैनाने गई सर, सर-तजि कंज, कंज-तजि चंदन-कपूर पर मली है। 'ग्वाल कवि' हाँते चंद में है चाँदनी में गई, चाँदनी ते चलि सोरा-जल माहिं रली है। सोरा-जन हू ते धंसी मोरा फिर पोरा-तजि, . बोराबोर है के हिमाँचर में गली है। साथ-ही दासजी कृत "सुन ते वौ नँद कियौ...." के साथ रघुनाथ कवि का विरह-निवेदन भी देखिये, यथा- "मापुंन के बिछरें मनमोहन, बीती घरी भबै एक की कै है। ऐसी दसा इतने में भई, 'रघुनाथ' सुनें भइ ते मॅन वै है॥ लादिजी के मंसुभान को सागर, बादत बात मनों नभ छवे है। बात कहा कहिऐ ब्रज की, अब-गोई है कि बड़त है ।" अथवा- "गोपिन के असुवान को भीर, सुती मोरी बदौ, बहि के भए नारे । मारे भए नदिया बदि, नंदिया नद ते भए फाँट करारे । बेगि चलौ तौ चली उत कों, 'कवि तोष' कहै अजराम-दुलारे । वे नंद चाँहत सिंधु भए, पुनि सिंधते है जलाहल मारे ॥ ___ मा०-१. (का० ) (३०) (प्र०) दिनालों...। २. (का) (३०) है। ३.(का०)(प्र.) ललकार है। ४.(का०) (प्र.) दरसाद है।