पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५७८

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काव्य-निर्णय ५४३ प्रति कहा गया है-"अनुभासः शब्दसाम्यं वैषम्येऽपि स्वरस्य यत्" । अर्थात् स्वरों की विषमता रहने पर भी शन्द-पद, पदांश का साम्य अनुप्रास । अनुप्रास में स्वरों की समानता हो या न हो, किंतु एक से मिले हुए अनेक व्यंजन अवश्य हों, क्यों कि केवल स्वरों की समानता में विचित्रता नहीं होती, व्यंजनों की समता में ही चमत्कार होता है । अस्तु, अनुप्रास का पदच्छेद करते हुए आपने उसका अर्थ किया है-"रसायनुगतत्वेन प्रकर्षणन्यासोऽनुप्रासः" ("रसभावादि के अनुगत प्रकृष्ट- न्यास-अनुप्रास) । अर्थात् , रस की अनुगामिनी प्रकृष्ट-रचना अनुप्रास है। श्राचार्य वामन ने शब्दालंकार के अंतर्गत अनुप्रास को मानते हुए 'यमक' के बाद अनुप्रास का वर्णन किया है, जैसे-- ___ "शेषः मरूपोऽनुमासः।" (४, १, १, ८) इसके बाद अापने “पादानुप्रास", जिसे वाद के प्राचार्यों ने लाट-अनुप्रास कहा है, का वर्णन किया है। आपने छेक-वृत्यादि अनुप्रास नहीं माने हैं। नवोन प्राचार्यों ने छेक-वृत्य के अनंतर-अत्य, अंत्य और लाट-अनुप्रास और माने है। श्री जयदेव ने स्फुटानुप्रास (छंद के अधांश या उसके भी अर्धाश में वर्णों की-विविध वर्णों को श्रावृत्ति ) भी माना है । इस स्फुटानुप्रास को बाद में "स्तुत्यानुप्रास" भी कहा गया तथा किन्हीं ने इसका पृथक भेद भी माना है। ब्रजभाषा-साहित्य के प्राचार्यों ने शब्दालंकार के अंतर्गत-छेक, वृत्य के अनंतर-वक्रोक्ति, लाट, यमक, श्लेव और चित्र काव्य को भी माना है (कविकुल कल्पतरु-चिंतामणि), पर भाषा-भूषण में-छेक, लाट, यमक, वृत्य नामक चार शब्द-अलंकार ही माने गये हैं। कोई-कोई इनके साथ 'पुनरुक्तिवदाभास' को भी अलंकार रूप में मानते हैं। प्रथम छेक-अँनुप्रास लच्छन जथा- बरन बौहौत के एक की, भावृति एक बार । सो 'कानुप्रास' है, आदि-अंत इक-ढार ।।. वि.-"अनेक वा एक वर्ण की आवृत्ति-श्रादि से अंत तक एक दार में होने को दासजी ने 'छेकानुप्रास' माना है। संस्कृत में अनेक वर्षों के एक बार सादृश्य होने को छेकानुप्रास माना है। छेक का अर्थ है,-नागरिक, वा चतुर । इसलिये चातुर्य-पूर्ण अनुप्रास छेकानुप्रास, अथवा चतुर-जनों को प्रिय होने के कारण यह छेकानुप्रास कहा जाता है । तात्पर्य पा०-१. (का० ) (३०)(प्र०) को... (सं० पु० प्र०) बर्न भनेक की....

  • ल० सौ० (म० अ०) ५०५२।