५४६ काव्य-निर्णय श्रीमनमोहन सों रति मेरो, श्रीमनमोहन सो नति' मेरी। श्रीमॅनमोहन सों मति' मेरी, श्रीमनमोहन सों गति मेरी ॥ वि०-"दासजी के 'श्रीमनमोहन प्रॉन हैं मेरे०......" के साथ किसी कवि का निम्नलिखित छंद भी दर्शनीय है, यथा- "पीय निकट जाके, नहीं घाँम चाँदनी माहि। पीय निकट जाके नहीं, घाँम चाँदनी पाहि ॥" "इन दोनों पदों में संपूर्ण पद की उमी अर्थ में श्रावृत्तियाँ हैं, पर अन्वय भेद से तात्पर्य प्रथक्-प्रथक बतला रहे हैं।" अथ बीप्सालंकार लच्छन जथा- एक सन्द बहु बार जह, अति" आदर सों होइ । ताहि 'बीप्सा' कहत है, कबि-कोबिद सब कोइ ।। वि०-"जहाँ अति आदर से एक शब्द की अनेक बार श्रावृत्ति हो-बार- बार उसका प्रयोग किया जाय वहाँ कवि-कोविद “वीप्सा" अलंकार कहते हैं । __ वीप्सा, जहाँ श्रादर, आश्चर्य, उत्साह, घृणा, शोक, हर्ष, श्रातुरता, रोच- कता-श्रादि भावों का बाहुल्य प्रकट करने के लिये किसी शब्द विशेष का एक से अधिक बार प्रयोग किया जाय, वहाँ होता है। वोप्सालंकार का उल्लेख संस्कृत- रीति-शास्त्र-थों में नहीं मिलता, ब्रजभापा-कान्य शास्त्र में भी इस शब्दालंकार का अल्प उल्लेख हुश्रा है, विशेष नहीं । बीप्सा-उदाहरन जथा- जाँनि-जाँ नि आयौ प्यारौ पीतम बिहार भूमि, माँनि-माँनि मंगल सिँगारन सिंगारती। 'दास' हग-कंजन को बंदनबार ताँ निताँ नि, छानि'-छाँनि फूले-फूल-फूलन संवारती ।। पा०-१. (सं०पु०प्र०) नति...। २. (सं० पु० प्र०) गति...। ३. (स०पु०प्र०) रति...। ४. (सं० पु० प्र०) मति...! ५.(प्र०) हरषादिक ते होइ । ६. (१०नि० ) आवै...। ७. (सं० पु० प्र०) छाँनि-छाँनि फूले-फूल. सेजन सँवारती-सेज-ही सँवारती। ८. (का०)... कंजनि बंदनवार...। (प्र०)..दृग तोरेन कों द्वारन में तानि...1 ६. (३०) ठानि,..। २०.(३०)(सं० पु० प्र०) मानि-मानि मंगल सिंगारेन सिंगारती। . .
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