पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय ३५१ चोंकि-बोंकि, चकि-चकि, प्रौचक उचकि-उचकि, छकि - छकि, जकि - जकि, बहत बई-बई ॥ दोउँन को रूप - गुन बरनत फिरत दोऊ, धीर न धरत रीति - नेह की नई - नई । मोहि - मोहि मोहन को मैंन भयौ राधा - मई, ____राधा - मॅन मोहि - मोहि - मोहन-मई-मई ॥" अथ 'जमक' अलंकार-लच्छन जथा- वहे सबद फिर-फिर फिरै, अर्थ और-ही-और । सो 'जॅमकानुप्रास' है, भेद अनेकॅन ठौर ।। वि०--"जहाँ वही ( एक-ही) शब्द ( वा पद ) बार बार श्राकर और- ही-और अर्थों का प्रकाश करे, वहाँ 'यमक' अलंकार होता है तथा इसके अनेको स्थान पर अनेक भेद कहे गये हैं।" यमक अलंकार का लक्षण संस्कृताचार्यों ने-"पदमनेकार्थमक्षरं वाऽऽवृत्तं- स्थाननियमे-यमक" ( स्थान-नियम के साथ अनेकार्थक पद अथवा अक्षर को श्रावृत्ति-यमक, काव्यालंकार-सूत्र वृत्ति-वामन, ४, १, १), कहा है। यहाँ अनेकार्थ विशेषण पद का है, अक्षर का नहीं, क्योंकि पद अनेकार्थी हो सकता है, अक्षर नहीं । भामह कहते हैं- "तुल्य भुतीनां भिमानामभिधेयैः परस्परम् । वर्णानां यः पुनर्वादो 'यमक' तमिगधते ॥"-२, १७ सुनने में समान प्रतीत होने वाले, पर अर्थ में भिन्न वर्गों की पुनरुक्ति वा आवृत्ति 'यमक' है । यद्यपि यहाँ पदों को श्रावृत्ति का लक्षण में समावेश नहीं किया गया है, फिर भी "भिमानामभिधेयः परस्परं" से उस (पद ) की पूर्ति- प्रतीति हो जाती है । क्योंकि केवल वर्ण सार्थक नहीं होते, पद सार्थक होते हैं, इस वर्णावृत्ति में भावृत्त वर्गों की स्थिति चार प्रकार की-"जहाँ दोनों (पद) सार्थक हों, पर वे समानार्थक न होकर भिन्नार्थक हों, जहाँ दोनों अनर्थक ( बिना अर्थ वाले) हों, जिसका प्रथम अंश सार्थक और दूसरा निरर्थक हो ( पहिला सार्थक भाग पद और दूसरा अनर्थक भाग पदांश वा वर्ण रूप) जिसमें प्रथम भाग अनर्थक और द्वितीय ( उत्तर ) भाग सार्थक हो, अर्थात् पूर्व भाग पदांश रूप वर्ण अथवा अक्षर, अनर्थक तथा उत्तर-भाग सार्थक-वद कहा गया हो।" यह पदों की आवृत्तिः भिन्नार्थक अवश्य होनी चाहिये । श्रीमम्मट कहते है- पा०-१.(का० ) (२०)(प्र०) परै...।