काव्य-निर्णय ५५७ सावन में न भयो “हनुमंत" दोऊ मिलि मूलि मलार गावन । गावन मोहि सुहात नहीं, बदरा बद-राह लगे जुरि धावन ॥" अथ अलंकारन के और भेद जथा- ज्यों जीवात्मा में रहें, धरम सूरता आदि । त्यों रस ही में होत गुन, बरने गर्ने सबादि ।। रस-हो के उतकर्ष कों, अचल थिती,गुन होइ । अंगी-धरँम सरूपता२, अंग-धरँम नहिँ कोइ ।। कहुँ लखि लघु कादर कहैं, सूर बड़ौ लखि अंग। रसै लाज त्यों गुन-बिनौं, अरि सों सुभग न संग ।। अनुप्रास-उपमादि जे, सबदारथलंकार । ऊपर ते भूषित करें, जैसे तँन कों हार ।। अलंकार-बिन रस-हु है, रसौ अलंकृत-छंडि । सुकबि बचॅनरचनॉन सों, देति दुहुँन कों मंडि ॥ वि०-"दासजी ने यहाँ पाँच दोहों में-गुण और अनुप्रासों को महत्ता बतलाते हुए, बिना अलंकार के रस और रस के बिना अलंकार दोनों का उल्लेख करते हुए उनके उदाहरण भी दिये हैं, यथा- अथ रस-बिना अलंकार को उदाहरन जथा- चित्त चिहुँट्टत देखि के, जुट्टत दारे-दार । छिन-छिन छुट्टत पट रुचिर, टुट्टत मोतिन हार॥ अस्य तिलक- इहाँ पौरुषावृत्ति रूप सों अनुप्रास अलंकार है, रस नाहीं है। पुनः उदाहरन जथा- चोंच रही गहि सारसी, सारस-हीन मृनाल । प्रॉन जात जनु द्वार में, दियो अरगला-हाल ।। पा०-१. (२०) गुनें। २. (सं० पु० प्र०) सु सूरता"। ३. (सं० पु० प्र०) कहुँ लहु लखि"। ४. (सं० पु० प्र०) सुभ गुन संग"। ५. (का०) (३०) (प्र०) सदार्थालंकार । ६. (का०)(३०)(सं० पु० प्र०) मोतिय" ।
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