पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६०६

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काव्य-निर्णय ५७१ बाने पर ही होता है । किंतु जहाँ अपनी-ही उक्ति में 'काकु' का प्रयोग किया जाय वहाँ "काक्वाक्षिप्त गुणीभूत व्यंग्य' कहा जायगा-अलंकार नहीं।" प्रथम उदाहरन जथा- आज तो तरुनि, कोप-जुत अवलोकियतु, रितु-रोति है। है 'दास' किसलै-निदान जू । सुमॅन नहीं तो ये है-है देखौ घनस्याम, कैसी कही बात मंद-सीतल सुजॉन जू ।। सोंहे करौ नेन हमें ऑनि नहिं श्राबै करि, ऑन की तो बूझो आँन बिरही की आँन जू । क्यों है दलगीर रहि गए कहुँ पोरे पोरे, एतौ मॉन - माँनऐं, जाँने बागवाँन जू ॥ दुतिय उदाहरन जथा- कैसौ कहौ कान्ह सो तौ हों-ही खरौ एक अब, सहसँन में जैसे एक राधा-रस भीजिए। गहिऐ न कर, होत लाखन को जॉन लाल, चाहिए तो आपनों-ही पदम उभै दीजिए । नील.के बसँन क्यों बिगारत हौ वाहि'• काज, बिगरै तौ हम पै बदल सख लीजिए। देखती करोर बारी संगनी हमारी हैं सो, अरथी वारे हम-संग संका कत कीजिए। तीसरौ उदाहरन जथा- लाल ए लोचन काहे प्रिया हैं, दियौ3 ह है मोहेन रंग मँजीठी। मोते "उठी है जुबैठी अरीन की,सीठी क्यों बोले, मलाई "लों मीठी।। पा०-१. (३० ) दास हैहै किसले...। २. (३०) नहीं होई है क देखें घनस्याँम...। (सं० पु० प्र०.) नहीं री तो यह है हैं देखे धनस्यांम...। ३. (सं० पु० प्र०) नहिं करि बाब...। ४. (३०) आंन की बूझिय आँन...। ५.(प्र०) पीर एरी,... (सं० पु० प्र०) ...दलगीर रहि खरौ एक अब सहस में...। ६. (३०) एते...। ७. (३०) कहैं...। . (10)(सं० पु० प्र०) वाहिऐ तो आपनों पदम-हम...। ६. (प्र०) पद मोहि...। १०. (का.) (प्र०) वही...। (३०) योंही...। (रा० पु. का०) वेही...। ११.( का०) हैं, भरथी वारे...। (३०) अरबी वारे.... (प्र०) (स० पु० प्र०) है, अरधी...। १२. (का०) (३०) कंत...। १३. (का०) (प्र०) दिऐ...। १४. (३०) मो तो उठी है जुबैठे...। १५. (३०) मिलाइ यो मीठी । (प्र०) मिलाइ ल्यों.... (०नि०) क्यों बोली, मिठाई लो...।