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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६१८

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काव्य-निर्णय ५८३ वि०-"दासजी ने इस 'कमल-बद्ध' चित्रालंकार से--कपि । (बंदर) का कौन-सा सुदर अंग, सुदर बागों में जल किससे उछलता है, निश्चरों का भोग (खाद्य) क्या, माघ में किस वस्तु के दान का शुभ फल है, सिंधु (सागर) में क्या भरा है, सेव को किन दो ने बाँधा, सरसिज (कमल) में संकट (कंटक) कहां होता है, किसे देखने पर घृणा होती है, किसने हलरूप श्रायुध हाथ में लेकर महाखल प्रलंब को माग और शाक्त किस पर सुचित्त (भले प्रकार=नि द) होकर सदा सोते हैं- इत्यादि का “गनपति-जॅननी-नाम-बल" से, अर्थात् "गँनपति-जननी-नामवल के प्रत्येक अक्षर को मध्य अक्षर 'ल' से संबद्ध कर जैसे—'गल, नल, पल (मांस), तिल, जल, नल, नील (बंदर), नाल, मल, बल ( बल्देव ) और गँनपति-जननी (पार्वती = दुर्गा ) के नाम-बल के सहारे" से क्रमशः उत्तर दिये, जैसाकि ऊपर दिये 'कमल'-चित्र से ज्ञात होता है। इस चित्र में प्रथम पंखड़ी के अक्षर 'ग' को कोप के 'ल' से संबंधित कर पुनः इसी प्रकार प्रत्येक पंखड़ी के अक्षरों को कोप-लिखित 'ल' से जोड़कर बाद को फिर प्रथम-पंखड़ो 'ग' से चलकर प्रत्येक पंखड़ी के अक्षर पढ़ते हुए कोष के 'ल' को पढ़ना चाहिये।" | अथ सृखला-बंध उत्तर लच्छन जथा- दु-द्वै' गतागत लेति चलि, इक-इक बर्न तजंत । नाँम 'सुखलोत्तर' वही, होत समस्त जु अंत ।। अस्य उदाहरन जथा- छबि-भूषन को, जप को हर को, सुर को, घर को, सुभ कोन रुती। किहिं पाऐं गुमान बढ़ , किहिँ आँएँ घटे, जग में थिर कोंन दुती। सुभ जन्म को, 'दास' कहा कहिऐ, वृषभान की राधिका कोंन हुती । घटिका निस आज सु केती अली, किहि पूजैगी-"नगराज-सुती ॥ अस्य तिलक- इहाँ “नगराज-सुती” सों नग, गन, गरा, राग, राज, जरा, जसु, सुज, सुती, तीसु औरु नगराज-सुती कहि सबको उत्ता संखला-बंध सों दियो । वि.-"दामजो ने इस छंद में अंतिम चरण-"नगराज-सुती" के द्वारा शृंखलाबद्ध, अर्थात् दो-दो वर्णों के गतागत रूप से एक वर्ण को त्याग कर, संपूर्ण प्रश्नों के जैसे-भूषण-की छबि (शोभा) क्या, जप क्या, स्वर का हरण करने पा०-१. (प्र०) है । २. (प्र०) जंत। ३. (३०) (प्र०) जय": (० पु०प्र०) जन"