पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६४४

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काव्य-निर्णय ६.६ अस्य उदाहरन दास मेंन न में सदा, दाग कोप पको गदा। सल सोनन सो लस, सन' दैत तदै नस ॥ वि०-"दासजी ने इस "अर्ध-गतागत" चित्रालंकार का वर्णन करते हुए उसे श्राधे-श्राधे चरणों के लोम-विलोम से चार चरणों का छंद बननेवाला, उलटने- पलटने से एक-ही छंद, अर्थात् पूर्व चरण को उलट कर पढ़ने से नीचे का चरण और नीचे के चरण को उलटा पढ़ने से पूर्व का चरण तथा उलटा-सीधा दोनों से बनने वाला तीन भेदों का उदाहरण वर्णन दिया है । इस प्रथम उदाहरण में ऊपर दिये चित्रानुसार एक-एक चरण के उलटने से वही चरण, जैसे-"दास में न न में सदा" दास में न न में सदा" की भांति छंद का प्रत्येक चरण बन जाता है। अथ दुतीय उलटौ-सूधौ उदाहरन रही भरी कब ते हिऐं, गसी' सि निरखनि वीर । रती निखर निसि-सी गएँ, हि' ते बकरी अहीर ।। ___ अस्य तिलक पा दोहा के ऊपर की तुक (प्रथम चरण ) उसटौ पदिवे सों नीचे की तुक (चरण) और नीचे की तुक (चरण) को उलटौ पदिवे सों पर की तुक (चरण) । पा०-१() सेन दे, तत दै...। २. (सं० पु० प्र०) नहीं हैं निरखनि...। ३. (10) गर हितेन करी...1 ३६