काव्य-निर्णय पुनः उदाहरन सखा दरद को रीहरी, हरी को दरद खास । सदा अकिल बाँने गॅने, गनें बाल किम दास ।। अस्य तिलक इहाँ हूँ दोनों चरनन को उलटे पदिबे सों दोनों चरन बनें हैं। पुनः उदाहरन रे भज गंग सुजॉन गुनी, सु सुनी' गुन जासु गगंज भरे । रे तक ने अगलो लहि नेक', कनें हिल लोग अनेक तरे॥ रेफ समोरघ जाहिर बास, सबार हि जा घर मो सफरे। रे खत पान-हि जोहिते- 'दास', सदा तेहि जोहि न पात खरे।। अस्य तिलक इहाँ हूँ चारों धरनन को उलटौ पढ़िवे सों चारों चरन विपरीत अर्थ में बनें हैं। अथ द्वै सों उलटौ-सूधौ जथा- न जाँनत हुयहि 'दास' सों, हँसौ कौन तन गैल । न आँहिन यति दुरेब सों, रमोनत रब-रस रौल ॥ ___ उजटौ जथा- लसै सरब तन मोर सों, बरे दुतिय नहिं मान । लगे न तन कों सौह सों, सदा हियहु तन जॉन ।। वि०-"ऊपर का दोहा-"न जानत हुय०....."सीधा है और नीचे वाला दोहा उसी का उलटा (विपरीत ) हुआ रूप है।" पुनः सूधौ-उलटो यथा- सीवन-माल-हि हीन जलै महि, मोहि दगी अति है. तर लो। सीकर जी जरि हाँनि ठयो, सु लयौ कवि 'दास' न चेत' पलो॥ पा०-१. ( का० ) गुनी...। २. ( का० )(३०) (प्र.) ने कु कुनेहिल लोग...। ३. ३०) समोरध"। ४. (३०) धर...। ५. (का०) (३०) जो हित दास... ६. (का०) (३०) जानत-हु यहि दास"। ७. (का०) ना आहिन बाँत दुख सौ,..." (३०) ना माहिन पति दुरव सौ. रमो न त बरस"। (प्र०) न त्राहि नयति दुरेव...। (स.पु० नी०सी०) ना पाहि पति दुर बसौ . (का०)(क) प्रति हेच रखो। (का०) (०)(प्र०) चैत...
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