पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६४६

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काव्य-निर्णय ६११ सील न जॉनति भाँत बसार, दयाहि निरीखत' हैन भलो। सोस जलायौ मलेज हुँ त, यहि भीखमु जोन्ह न जॉन'चलो। उलटौ जथा- लोचन जॉनन्ह जो मुख भी, हिय तें हुँ जलै मयौ लाज ससो। लोभ न है न खरो निहिया, दरसाबत भाँतिन जान लसी ॥ लोपत चैन सदा बिकयौ, सुलयौ ठनि हारि जजीर कसी। लोरत है ति गोदहि मोहि मलैज नहीं हिल मान बसी । वि०-"ये दोनों सवैया भी दास कृत सोधे-उलटे के उदाहरण हैं। प्रथम छंद उलटा है और दूसरा छंद, पूर्व के नीचे के चरण से उलटा पढ़ने पर बना है । अर्थ भी विपरीत है।" अथ त्रिपदी चित्रालंकार लच्छन तथा-- मध्य चरन इक दुहुँ दलँन, त्रिपदी जॉनहुँ सोह। वहे मंत्र गति, अस्व गति, सुख सु जाहू दोह॥ अस्य उदाहरन जथा- "दास' चारु चित चाइ मइ, महै स्याँम छबि लेखि । हास हार हित पाइ भइ, रहे कॉम दबि देखि ॥ दाचा | चिचा | म | म | स्याँ छ ले | म । बि खि वि०-"जब एक मध्य चरण से दोहे के दोनों दल ( चरण ) बनाये जाय, वहाँ 'त्रिपदी' चित्रालंकार कहा जाता है। इस त्रिपदी चित्रालंकार से 'मंत्रगति' तथा अश्वगति-रूप से दो चित्रालंकार और बनते हैं। यह शुद्ध त्रिपदी का उदाहरण है। संस्कृत-साहित्य में इस त्रिपदी को "चरण-गुप्त" कहा गया है । इसकी रचना जैसा कि उसका नियम है प्रत्येक दल (चरण) में सोलह-सोलह अक्षर होने पा०-१. (का०) (40)(प्र०) निरीखन... ..."न जॉनति भा तब सारद, ग्याहि निरीखन"। २. (का०) (40) जात"। ३. (का०) (२०) (प्र०) सु याहू " ।