६२५ काव्य-निर्णय कीन्हीं सब लोक में तिमिर अधिकारी तिमि रारि को बगारी लै भराबै नीर छन-छनु । लोप दुतिबंतन कौ देखि भति ब्याकुल तरैयाँ भाजि भई फिरें जोगना है तँन-तैन । इंद्र की बधूटी सब साँजन की लूटी खरी, लोहू टि-घूटि वै बगरि रहीं बनु-बँनु ।। अस्य तिलक इहाँ-धनु, नु, तनु और बनु" एक पद ( शब्द ) है-वार पाए ताते बीप्सा-सुक भई। वि०-"वीप्सा की परिभाषा उसके लक्षण के साथ श्रागे वर्णित शब्दालंकार में आ चुकी है (दे० का नि०-पृ० ६२४ ), इसलिये उसका पुनः कथन अनुचित है। फिर भी किसी कवि का एक उदाहरण और देखिये- "खेलत बसंत प्रजचंद-नंद जू सों आज, बाजत मृदंग धुंधुकार घंन चूमि-घूमि । नाँचत, नटत सुघराई को समूह भरी, तान की तरंगन सों रहयौ रस झूमि झूमि ॥ फेरि ऐसौ दाब कहाँ पाइ हो री ग्वालिनि हों जैसी कछु या दिन भई बज धूमि-धूमि । सुंदर रसास मन-मोहन गुपाल जू को, सांवरी-सलोंनों मुख लीजिए री खूमि-मि ॥ यहाँ मी-धूमि-घूमि, झूमि-झूमि, धूमि-धू मि और चूमि-चमि में वीप्सा की बहार है।" दुतिय नाम ( यमक ) तुक उदाहरन जथा- पाइ पाबसै जौ करे, प्रिय पीतम परमॉन'। 'दास' ग्याँन को लेस नहि, तिन में तृन परमान॥ अस्य तिलक इहाँ परमान सब दोंनों तुर्कन में प्रायो, पै दोनोंन के अर्थ है, ताते जाम (पमक) तक भई । परमान-पर मांग, (पैमान) परवान-गमन। प्र०-१. (१० पु० नी सी.) कीन्हों.१२.(का.) (३०)(प्र०) वेगारी"। १. (का.)() ". (०) परयान । ५. (का०) (०) (प्र०) तिन ४०
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