काव्य-निर्णय ६२९ शताब्दी) ने "काव्यालंकार-सूत्र-वृत्ति" में दोषों का विवेचन और प कुछ अधिक ठोस पायों पर किया है। अापने दोषों को-पद, वाक्य और वाक्यार्थरूप में चार प्रकार के माने हैं । यह वर्गीकरण-श्री नामह और दंडी के मार्ग-का बाहक कहा जा सकता है । श्रीवामन के समय नि की काव्यात्मा के रूप में प्रतिष्ठित हो जाने के कारण उसका औचित्य को मुख्य कसौटी माना जाने लगा। अतएव दोषों का विवेचन भी तद्- होने लगा। इसे रस-दोषो का आविर्भाव-काल कहना कुछ अनुचित ।। भोजराज ( ई० की ग्यारहवीं शताब्दी) ने इस परिवर्तन का काफी ठाया और भूतपूर्व दोप-संख्या में अभिवृद्धि की। काव्य-प्रकाश-रचयिता र्य मम्मट ( ई० की ग्यारहवीं शताब्दी ) अपने पूर्व के काव्याचार्यों से 'गे बढ़े। अापने दोपों का समुचित वैज्ञानिक-वर्गीकरण करते हुए, ख्या में भी यथेष्ट वृद्धि की । अब दोप-संख्या (शब्द-दोष-३७, अर्थ- २७, रस दोप-१०+७४) सत्तर से आगे बढ़ गयो। उक्त स्थिति के न्हीं अनाम-प्राचार्यों ने दोषों का एक और वर्गीकरण किया। इन के अनुसार दोष-वाक्य, अर्थ, छंद और अलंकार से सन्नद्ध कहे गये । को ही मूलाधार मानकर दोषों को–“रस की प्रतीति को अवरुद्ध ला, उसके मार्ग में व्यवधान उपस्थित करने वाला और रसास्वादन में उपस्थित करने वाला" इत्यादि तीन प्रकार का मानने लगे। उक्त- प्रदान करने वाले श्रनाम श्राचार्यों का कहना है कि - "काव्य की चरम रस है, इसलिये सभी प्रकार के दोषों का संबंध रस के-ही साथ बँधा हुश्रा स्तुतः पूर्व कथित वर्गीकरणों से यह वर्गीकरण कुछ अधिक सार-गर्मित ता है, साथ-ही यह काव्यगत-दोषों के मनोवैज्ञानिक-विश्लेषण से गहरा रखता है। भाषा-साहित्य में दोष वर्णन का उपक्रम सर्व प्रथम प्राचार्य केशव ने या' और 'रसिक-प्रिया' में किया है । कवि-प्रिया में अापने कहा है- "राजत च न दोष-जुत, कविता, बनिता, मित्र । अथवा- प्रभु न कृतघ्नी सेहऐ, दून-सहित कवित्त ॥ संस्कृत साहित्य की देन है, पर आपने उन (दोषों) का क्गीकरण षो उस क मान्य हो चुका था, नहीं किया। दोषों की संख्या यहाँ-तेईस कविप्रिया-बन्य, ५-रसिकप्रिया-जन्य) है। श्री केशव के बाद चिन्तामणि ने दोषो का कपन संस्कृत-जन्य वर्गीकरण के साथ अच्छे ढंग से किया
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