६३२ काव्य-निर्णय - अस्य तिलक इहाँ-त्रिया, चच्छुसबा (चक्षुधवा-सर्प ) और दृष्टि ए तीनों ही सब्द दुष्ट हैं-सु तिकटु हैं । नति-सब्द हू सकार की समास ते दुष्ट भयौ, त्रिया-सब्द में रकार दुष्ट है, ताते तीनों प्रकर को स्व तिकटु भयो। वि०-"कानों को जो कटु लगे-अप्रिय, कठोर ज्ञात हो, उसे श्रुति-कटु या कर्ण-कटु कहते हैं । श्रुति = कर्ण (कान ) वाची है । कर्णवाची श्रुति शब्द का प्रयोग कविवर विहारीलाल ने बड़े ही सुंदर ढंग से किया है, यथा- "प्रजों तरोंनाही रहयौ, "सति सेबत इक अंग। नॉक-बास बेसर लहयो, रहि मुक्तन के सग॥" मुद्रालंकार से विभूपित दोहा रूप स्वर्णाग में श्लेप की सिल्ली पर समु- ज्वल किया हुश्रा 'म ति' शब्द कितनी अपार अर्थ-श्राभा के साथ देदीप्यमान हो रहा है कि कहा नहीं जा सकता...। "साथ शोखी के कुछ हिजाब भी है। इस अदा का कोई जवाब भी है।" अथ भाषा-हीन-दोष-लच्छन जथा- बदल गऐं, घटि-बढि भएं, मत्तबरन बिन-रोति । भाषा-हीनंन में गने, जिन्हें काव्य पै' प्रीति ।।. वि०-"किसी नियम के बिना मात्रा वा वर्गों के घट-बढ़ जाने या बदल बाने को 'भाषा-हीन' दोष कहा जाता है। संस्कृत में इसे—भाषाच्युत ( संस्कृतिच्युत = जो व्याकरण के नियमानुकूल न हो) और ब्रजभाषा-साहित्य में 'काचीभाषा' ( कच्ची भाषा = अपरपक्क भाषा ) कहा है। अस्य उदाहरन वा दिन बैसंदर चहूँ, बँन में लगी अचान । जीबत क्यों प्रज बाँचितो, जो न पीबतो कॉन ।।. अस्य तिलक इहाँ 'वैसादर' को बदल करि बैसदर कइयौ, चहुँ-दिस को बदल के चहूँ पा०-१. (सं०पु०म०) काव्य-परतीति । २. (का०) (३०) (प्र०) (स०पु०प्र०) (का०प्र०) जो ना पीवत"।
- काव्य-प्रमाकर (मा०) पृ०-१३६ | ..