काव्य-निर्णय और 'मुग्धा '- झलकत भाव तरुनई, नई जासु अँग-भंग । तासों 'मुग्धा' कहत है, जे प्रवीन रस-रंग ॥ मनोजमंजर (भवान) ज्ञात यौवना-नापिका का उदाहरण कविवर "पनाकर" से बड़ा सुंदर बन. पड़ा, पथा- "चौक में चौकी जराइ जरी, तिहि पै खरी बार-बगारत सोधे । छोरि धरी हरी कंचु की न्हाँन कों, मंगन ते नगे जोति के कोंधे ॥ छाई उरोजन की छवि यों "पदमाकर" देखत ही चकचोंधे । भाजि गई लरिकाई मनों लरिके, करिके दुहुँ दुदभो भोंधे ॥" और 'मुग्धा'-- "जल में दुरी है जैसें कमल की कलिका है, उरजन ऐसें दीनी सरुचि दिखाई-सी। 'गंग' कहै सांझ-सी सुहाई तरुनाई आई-लरिकाई-मध्य कछु मैं न लखि पाई-सी॥ स्याँमा को सत्रोंनों गात ता में दिन हैक मॉम फिरी-सी चहत मनमय की दुहाई-सी । सीसी में सलिल जैसें, सुमन-पराग तैसें सिसुता में मलमले जोबन की झाँई-सी ॥" कोई उर्दू शायर कहता है- "गले मिलने के इन काफिर हसीनों से यही दिन है। जबानी जब गले मिलती हो मा-माकर लड़कपन से ॥" अथ अगूढ ब्यगि बरनन उदाहरन 'दोहा' जथा- घन-जोबन इन दुहुँन की, सोहत रीति सुबेस' । मुग्ध नरँन मुगधुन कर, ललित बुद्धि-उपदेस ।। ____ अस्य तिलक धर्म के पाइवे ते मूरख ( नर)हू बुद्धिबंत हजात है भौ धन-रूप जोबन के पाइबे ते नारी चतुर है जाति है, ये भगूढ व्यंग है। उपदेस-सबद लग्छनो ते ( सों) वाच्य हू में प्रघट है। पा०-१. (मा० बी० ) (प्र०-२) बिसेस... |
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