काम्य-निर्णय ६३७ अस्य तिलक इहाँ 'जीमूत' बादर को कहयो, पै तामें 'मूत' सबद घूनों उतपन्न कर है, पितृग्रह = पित्र-जोक को कहैं है, सो असुभ है मौ 'गुदरीन' में गुन सबद गुहा को भरथ देइ है और 'रान' जाँव को कहत हैं, सो ये लज्जा-जनक हैं, ताते तीनों प्रकार की असलील यहाँ भयो। वि०-"संस्कृत में घृणापूर्ण, अमांगलिक और लज्जास्पद शब्दों के प्रयोग होने पर अश्लील-शब्द दोप माना है। यथा-"विधेति ब्रीडाजुगु- प्साऽमंगलव्यंजकत्वात्" (काव्य-प्रकाश-७, १५१)। वहाँ इन तीनों के पृथक्- पृथक् उदाहरण भी दिये गये हैं। साहित्य-दर्पण-रचयिता ने काव्य-प्रकाश- प्रयुक्त-लज्जा, घृणा और अमंगल सूचक -साधन ( सेना-लिंग ), वायु (पवन, अपान वायु) और विनाश ( अदर्शन, मृत्यु ) इन तीनों शब्दों को जो वहाँ पृथक्-पृथक् कृतियों में प्रयुक्त किये गये हैं, एक-ही उदाहरण में-दास- जी की भाँति तीनों अश्लील-द्योतक रूप में कहा है, यथा- "सारिविजये राजन् साधनं सुमहत्तव।। प्रससार शनैर्वायुविनाशे तन्धि ते तदा ॥" ७, ५ अर्थात् हे राजन् , मदांध शत्रुओं को विजय करने में तुम्हारा “साधन" और हेतन्वी, तब तुम्हारे "विनाश" के समय "वायु" धीरे से चलो इत्यादि......." अपने कवि-कुल-कल्पतरु में व्रजभाषा-साहित्याचार्य श्री चिंतामणि ने इस अश्लील का उदाहरण निम्न प्रकार का दिया है- __“वै मारग देखत उहाँ, पाद-परी हों भाइ । तू सब कैसी कर जो, विरह-पीठ-मरजाइ ॥" . उर्दू-साहित्य में भी कुछ खुली अश्लीलता जब कभी मद्देनजर आ जाती "इस घर तो छुट चुके है, कहाँ तक करूं "नसम"। किस जौं बिठाऐ देखिये अब भास्मो मुझे ॥" अथवा- "दाई, पक्रीन है कि कहीं गिरजाय ना "हमल"। नन्हा-सा लड़का याव में भा 'पेट' मल गया ।" कविवर 'चिरकी' के भो उदाहरण अश्लीलता-वर्णन में निरखे-परखे जा- सकते है, पर एक बात ध्यान रहे- रहे इकांकपन भी बेदमागीतोजगा।"
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