पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६७५

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काव्य-निर्णय अथ समास सब्द दोष लच्छन जथा- जहँ समास कों बदलि के, धरत सब्द-कोउ आँन । सो 'सँमास' दूषन कहत, जे कबिजन मति-माँन ।।. वि०-"जहां समास-युक्त शब्द को पृथक् कर उसके स्थान पर वैसा ही अर्थ-वाचक दूसरा शब्द रखा जाय-समास का अयोग्य-स्थान पर प्रयोग किया जाय, वहाँ–'समास दोप' कहा गया है । संस्कृत-साहित्य में यह दोष शब्दगत नहीं माना गया । ___काव्य-निर्णय की सभी मुद्रित प्रतियों में काशीराज-पुस्तकालय की हस्तलिखित प्रति को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी यह दोहा नहीं मिलता। पं० जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' ने अपने काव्य-प्रभाकर पथ में इसे अपनाया है।" अस्य उदाहरन जथा- है दुपंच-स्यंदैन-सपथ, रौहजार मँन तोहि । बल अपनों दिखराँउ, जो मनि करि जॉने मोहि ।।. अस्य तिलक इहाँ-दुपंच-स्यदन दसरथ को ौ सैहजार लच्छमन को नाम है, सो पैहले में संपून औ दूसरे में माधौ सब्द फेरी गयौ, ताते समास दोप है। पुनः उदाहरन जथा- तब लगि रहो 'जगंभरा', राहु निबिड़ तँम बाह। जब लों पट-बैदुर्जमनि', हाथ बगारत आइ॥ अस्य तिलक इहाँ हूँ बिस्वंभरा पृथवी कों जगभरा, राहू को घनों सॅम=अंधकार, अंचर-मनि ( सूर्य ) को पट-बैदुजमनि श्री किरन कों हाथ कहयो, ए समास. अथ क्लिष्ट सब्द दोष-लच्छन उदाहरन जथा- सीढ़ी-सीढ़ी अर्थ-गति, 'क्लिष्ट कहा ऐंन । "खग-पति-पति-तिय-पितु-बधू-जल-सँमान तो बेन ॥". पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) (का०प्र०) बल मापनों दिखाउ जो। २. (का०) (३०) (प्र०) लों"। ३. (का०) (३०) (प्र०)"वैदूर्य नहिं"!४.(का०) (३०) (०) (का०प्र०) दुव"

  • काव्य-प्रभाकर (भा०) १०-६४ 1