पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६९५

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काव्य-निर्णय अस्य उदाहरन मोहन-छबि आँखियन-बसी, हिऐं मधुर मुसकान । गुन-चरचा बतियाँन में, उँन-संम और न ऑन'। अस्य तिलक इहाँ चौथौ चरन--'उँन-सॅम और न ऑन" अजुक्त है, इहाँ "और न मृदुबत रॉन" पाठ होंनों चहिऐं, ताते यै दोष है। वि०-"दासजी कृत इस अयुक्त-पद दोष को संस्कृत-शास्त्र-प्रथों में अपद- युक्त (जहाँ अनुचित स्थान में ऐसे अर्थ का योग हो, जिससे प्रकणार्थ-विरुद्ध अर्थ की प्रतीति हो) दोष कहा गया है और जैसा कि दासजी ने कहा है-इसके दो भेद 'विधि' और अनुवाद-अयुक्त और होते हैं। विधि-अयुक्त--"विधान करने के अयोग्य का विधान करना तथा अनुवाद-अयुक्त--"विधि के अनुकूल अनुवाद न होना कहा जाता है । अस्तु, पद-अयुक्त का उदाहरण दासजी ने ऊपर दिया है अब "विधि" और "अनुवाद-अयुक्त के उदाहरण नीचे क्रमशः देते हैं।" अथ विधि-अजुक्त दोष-उदाहरन जथा- पोन-अहारी ब्याल है, ब्याले खात मयूर । न्याध जु' खात मयूर कों, कोन सत्रु-बिन कूर ॥ अस्य तिलक इहाँ म्यान=सर्प कों (निरौ) पोन (पवन) अहारी कहिनों न चहिऐं, पौ अन्य जीबहू खात है, ताते 'विषि-भक्त दोष है। अथ अँनुबाद-अजुक्त-दोष को उदाहरन जथा- रे केसब-कर भामरन, मोद-करन श्रीधाम । कॅमल बियोगी ज्यों हरन, कहा प्रिया अभिराम ।। अस्य तिलक इहाँ-कमल को बियोगी-ज्यों हरन प्रजुक्त अनुवाद है, इहाँ 'बियोगी 'ज्यो' वा विनरन (विबोगियों के जी का हरने वाला) कहनों उचित हो, ऐसौ नदिनों के दोष है। १०-१. (का०) (20) (प्र०) जान । २. (का०) ()(प्र०) व्यापी खात" ३. (प्र०) यो..