६१२ काव्य-निर्णय अस्य उदाहरन जथा- हँसनि, तकनि, बोलॅनि, चलँनि, सकल सकुच में जासु । रोष न क्यों हूँ करि सके, सुकवि कहैं सुकिया सु॥ अस्य तिलक इहाँ- परकीया (नायिका) हु को अर्थ लागि जात है, तातै य दोष । वि०-"अभीष्टार्थ से प्रतिकूल अर्थ की प्रतीति को "प्रकाशित-विरुद्ध" कहते हैं । अस्तु, इस दोष के उदाहरण में जो छंद दासजी ने लिखा है, उससे (जिसका हँसना, देखना, बोलना, चलना सब सकुच-मय है) पारकीया की क्रिया भी जानी जा सकती है इत्यादि...।" अथ सहचर-भिन्न दोष लच्छन-उहाहरन जथा- सोहै 'सहचर-भिन्न' जहँ, संग न कहत बिबेक । "निज पर-पुत्र न मानते', साधु-काग-बिधि एक ॥" अस्य तिलक इहाँ-काग ( कौमा ) कोहल के पुत्रन को धोखे ते-जॉनि के नाहीं पाले है, ताकी साधु (पुरुषन ) सों संमता न चहिऐं, सो सहचर-भिन्न दोष है। पुनः उदाहरन जथा- निसि ससि सों, जल कमल सों, मंद बिसँन सों मित्त । गज मद सों, नृप तेज सों, सोभा पाबत नित्त ।। अस्य तिलक इहाँ-निसि (रात्रि) ससि सों, जल कमल सों, गज मद सों और नृप तेज सों सोभा-पाबत तौ उचित, पैमूद विसँन सों सोभा पाबति संगत-विरुद्ध सैहचर-भित्र है, ताते ये दोष है। अथ अस्लीलार्थ दोष-लच्छन-उदाहरन जथा- कहिऐं 'असलीलार्थ' जहँ भोंदौ-भेद लखाइ। "समत हैं पर-छिद्र को क्यों न जाँद मुरमाइ॥" . .. अस्य तिलक .. यहाँ रथ ते मुल्यांगहाथी जान्यों बाइ है, ताते दोष है। 4०-५. (स०पु०प्र०) मानतो" . .
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