पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७०४

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काव्य-निर्णय ६६६ “छिया" शब्द घृणास्पद होते हुए भी अधम-वक्ताद्वारा कथन करने से 'प्रास्यत्व-दोष' गुण बन गया है। दूसरा दोहा 'न्यून'-पद दोष गुणत्व" रूप का उदाहरण दिया है । यहाँ संस्कृत-साहित्यकारों का कथन है-"जहाँ अध्याहार के कारण अर्थ की शीघ्र प्रतीत होतो हो, वहाँ उक्त 'न्यून-पद दोष' नहीं होता.."। अथवा- "उक्ता वानंद मग्नादेः स्यान्न्यूनपदता गुणः।" अर्थात् , अानंदादि में निमग्न मनुष्य की उक्ति हो तो 'न्यूनपद-दोप' गुण होता है । अस्तु, यहाँ नायिका मुख से तो बार-बार नायक को सुरति प्रति मना कर रही है, पर चेष्टा से-गाढ़-आलिंगन से मोद-मान सुरतेच्छा प्रकट कर रही है । यह बार-बार कही गयी नहीं, शृंगार-रस-व्यंजक हर्षादि की-ही सूचक है, जिससे यहां वह आवश्यक पद-न्यूनता गुण में परवर्तित हो गयी है, जैसे- "भावन में नहीं, सेज-सोबन में नहीं, सुख-पान में नहीं मन-भावन में भाई हो । चुबन में नहीं, परिभँन में नहीं, कबि 'दूलह' उछांही-कला लाखन लखाई हो ॥ बोलॅन में नहीं, बंद-खोलँन में नहीं, सब हासँग-विलासन में वही ठीक-आई हो। मेलि गल - बाँही, केलि कींनी चित - चाँही, थे हा' ते भली 'नाही', कहाँ कहाँ ते सीख भाई हो। अथ क्वचित अधिक-पद दोष हुँन उदाहरन जथा- खल' बाँनी, खल को कहा साधु जॉनते नाहिं । सब समझे, पै तिहिं तहाँ, पतित करत सकुचाँहिं॥ अस्य तिलक खल (दुष्ट व्यक्ति) की खल (दुष्ट) बौनी को कहा साधु (संत, सज्जन) नाहि समझ है ? पै अबस्म लममें है, पे अभिप्राय पहले चरन-"साधु जानते माहिएते ही प्रघट है जाइ है, पैदूसरे चरन में पुनि "सब समझे कहिवे ते 'अधिक-पव-दोष' बनत है, पै पा पुनरुक्ति रूप कहिवे से समझिये की बता अधिक जानी जात है, ताते यहाँ वो गुन भयो। भौमै "क्वचित कथित गुन" को उदाहरन है, क्योंकि पामें सब सममिवे को अर्थ माह मिल्पी फिरह "सक समको " तो पति पता भई, वाते हूगुनाइहाँ है। पा०-१. (सं० पु०प्र०) छल।