६६८ काव्य-निर्णय अस्य उदाहरन मीत न पै है जॉन तू. ये खोजा-दरबार । जो निसि-दिन गुदरत रहै, ताही कों पैठार ॥ अस्य तिलक इहाँ-निंदा, क्रीड़ा औ हास में असलीलता हूँ [न मानी हैं। अथ क्वचित् ग्राम्य-दोष गुन जथा- प्रामीनोक्ति कहें कहुँ, प्रामै गुन है जाइ । "अजों तिया सुख की छिया, रही हिया पै छाइ॥" पुनः उदाहरन नाहिं नाहिं' सुनि नहिं रहथौ, नेह नाहि में नाँह । त्यों-त्यों भरत सु मोद सों, ज्यों-ज्यों मारत बाँह ॥ अस्य तिलक गै समें सुरति को नाहिँ हैं सो नाइका चेष्टा सों अस्वीकार करै है, पै मुख ते नहीं, सो न्यून दोष गुन है। वि०-"दासजी ने उक्त दो छंदों-द्वारा "क्वचित् ग्राम्य-दोप" का और "क्वचित् न्यून-पद दोष" का गुण-रूप होना कहा है। हस्तलिखित प्रतियों में द्वितीय दोहे का "क्विचित् न्यून-पद गुंन" शीर्षक नहीं लिखा मिलता, केवल दो मुद्रित-बंबई और 'प्रयाग' की प्रतियों में केवल “क्विचित् न्यून-पद गुण, वा"..."उदाहरण" शीर्षक ही मिलता है, लक्षण नहीं। साथ-ही "काव्य निर्णय" की सभी प्रतियों में प्रथम दोहे ( ग्राम्य-दोष गुण ) का तिलक भी नहीं मिलता। दूसरे उदाहरण का तिलक विभिन्न रूप से मिलता है। बहु-संमति तिलक ऊपर दिया गया है, दूसरा 'तिलक' इस प्रकार है- ___“ो समें सुरति को नहीं है, हम नहीं मानती, सो नायिका-बचन करि केवल नहीं सो जान्यों जातु है, ऐसी गैर में ऐसौ 'न्यून' गुन होत है।" संस्कृत-साहित्य-शास्त्र प्रयों में "ग्राम्यत्व दोष" का गुणत्व बतलाते हुर- "अधमप्रकृत्युक्तिषु ग्राम्यो गुणः" (अधम-नीच पात्र की उक्ति में ग्राम्य दोष गुण हो जाते हैं ) कहा गया है। अस्तु, दासजी कृत "उक्त" दोष-रूप गुण" के उदाहरण में जो "अजों तिया सुख की छिया.....कहा गया है, उसमें पा०-१. (३०) गुजरत । २. (का.) (२०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) नहीं-नहीं ..। ३. (का०)()(प्र०) भारति मोप...।
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