पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७०७

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६७२ काव्य-निर्णय अथ क्वचित् सहचर-भिन्न दोष गँन कथन जथा- मोहन मो दृग-पूतरी, वौ' छबि सिगरी प्रॉन । सुधा चितोंन सुहाबनी, मीच' बाँसुरी-तॉन ।। अस्य-तिलक इहाँ, सब्द में बाँसुरी की तान कों मींच (मृत्यु) कहिबौ असत है-सैह- पर भिन्न है, पै बिसेसोक्ति वा बिनोक्ति अलंकार करि के पुन संभव है, ताते [न भयो। या विधि भारों जाँनिऐ, जहाँ सुमति चित लेत । दोष होत निरदोष तहँ, ममता गुन-हेत ॥ वि०-"इस दोहे-द्वारा दासजी कहते हैं-इस प्रकार अन्य दोषों को भी गुण जानना कहा जा सकता है । वे सुमति-अच्छी मति वालों के हृदय को हरण कर लेते हैं, इत्यादि." "इति श्रीसकलकलाधरकलाधरबंसावतंस श्रीमन्महाराज कुमार श्रीगहिंदूपति बिरचिते काव्य-निरनए दोष-प्रदोष बरननं- नाम चतुरबिंसतितमोग्लासः॥" -पा०-१. (का०) (१०) (०). २. (का०) (०) सींधि।