अथ पच्चीसवाँ उल्लास अथ रस-दोष बरनन रस औ चर-थिर भाव की, सब्द-बाच्यता होइ । ताहि कहत 'रस-दोष' हैं, कहूँ अदोषिल सोह ।। वि०-"दासजी ने इस उल्लास में "रस-दोषों" का "श्रदोषिल" ( दोष- रहित ) हो जाने के सहित कथन किया है। यह दोष और श्रदोष-वर्णन भी अापने संस्कृत-साहित्य से लिया है। संस्कृत-साहित्य में इनकी अंतिम व्याख्या "विश्वनाथ चक्रवर्ती ( साहित्य-दर्पण ) कृत-"रसापकर्षका दोषाः" ( रस के अपकर्षक-उसकी हीनता या विच्छेद के जो कारण वे दोष) मिलती है, जो एक प्रकार से माननीय संमति है-अंतिम 'इस्लाह' है। फिर भी इनकी नाम- करण-विधि संस्कृत-साहित्य-शास्त्र के उद्भट विद्वान् श्राचार्य मम्मट द्वारा-निम्न प्रकार की गयी है- "व्यभिचारिरसस्थायि भावानां शब्दवाच्यता । कष्टकल्पनया व्यक्तिरनुभाव विभावयोः॥ प्रतिकूल विभावादि ग्रहो दीप्तिः पुनः पुनः । प्रकांडे प्रथनच्छेदौ अंगस्याप्यति विस्तृतिः ॥ अंगिनोऽननुसंधान प्रकृतीनां विपर्ययः । अनंगस्याभिषानं च रसे दोषाः स्युरीच्याः॥" -काव्य-प्रकाश, ७-६०,६१,६२ अर्थात् व्यभिचारी भाव, रस और स्थायी भावों का शन्दों-द्वारा कहा बाना, अनुभाव तथा विभावों की कष्ट-कल्पना-द्वारा अभिव्यक्ति, प्रतिकूल (विपरीत) विभावादि का ग्रहण, बारंबार एक-ही रस की उद्दीप्ति, बिना अवसर के विस्तार या विराम, किसी मुख्य विषय का बहु विस्तार से वर्णन, अंगी (प्रधान वयं- विषय ) का अनुसंधान न रखना-उसे भूल जाना, प्रकृति (पात्रों) का विप- यय ( उलट-पुलट) और अनंग-बो रस का उपकारक अंग नहीं है, उसका कहना"-ये तेरह (१३) रस-विषयक दोष हैं। इन रस-दोषों के प्रति पंडित- रान जगन्नाथ त्रिशनी का सूक्ष्म पर सार-गर्भित विवेचन है- "निबन्धमानोरसो रसशब्देन गारादि शब्दैवामाभिधातु मुचिता मना- सादापोस्तदात्यावरच जनामात्रनिष्पाय इत्युकत्वात् एवं स्थाषियमिारि- कामपि बाब्दवाच्यत्वं दोषः।"400-..।
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