पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७१

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काव्य-निर्णय 2 "निज पति-ति के चिन्ह लखि, और तियन के अंग। 'अन्यसुरति-दुखिता' सोई, जिहि दुख चढ़ अनंग ॥" -र० प्र० ( रसलीन ) पृ० ३४ अन्य संभोग-दुःखिता का उदाहरण 'रामजी' कवि का बड़ा सुंदर है, जैसे-- "सेद-कॅन-जाली, मंसुमाली की तपॅन आली, सुकी जाँन खंडे तो भघर-बिंब बूमे हैं। बनी जॉन स्याँपन सो चोंथी है कलापिन में, बापुरी चकोरी को कपोले चंद सूझे हैं। 'रामजी सुकवि' हों पठई तू तहाँ न गई, बंद कंचुकी के काऊ झारन मरुझे हैं । उरज उँचोंहे ए सुयंभू जॉन किंसुक सों, कुंजन के कोने आज कोंने इन्हें पूंजे हैं । (३) काकु-विसेख ते बरनन 'दोहा' जथा- हग लखिहैं मधु-चंद्रिका, सुनिहैं कल-धुनि काँन । रहि हैं मेरे प्रॉन तँन,' पीतम करौ पयाँन ।। * अस्य तिलक इहाँ काकु ( एक प्रकार की कंठ-ध्वनि, ध्वनि का विकार-"काकुलने- विकारः ) ते (प्रियतम कौ) गमन-बरजिवी व्यंजित होति है, ताते 'काकु- विसेष' है। वि०--"जहाँ केवल 'काकु-उक्ति' से व्यंग्यार्थ प्रतीत हो, वहाँ 'गूणीभूत- व्यंग् होता है और जहाँ काकु-उक्ति की विशेषता से व्यंग्यार्थ प्रतीत हो, वहां 'काकुवैशिष्ट य' है, यथा- "भिन्न कंउध्वनिर्धारः काकुरित्यभिधीयते ।" दासजी को यह रचना 'प्रवत्स्यत्यतिका'-"प्रिय के विदेशमन के निश्चय से व्याकुल नायिका" की उक्ति है। अथवा प्रियतम के विदेश गमन से होने वाले वियोग की आशंका से दुखित होने वाली (प्रवत्स्यत्यतिका) नायिका की उक्ति है, जैसे- पा०-१. ( का० प्र०) ( न्य० मं० ) (३० ) मेरे प्रॉन धैन,"।

  • का० प्र० ( भानु ) पृ० ७६ । व्यं० म० (ला० भ० ) पृ० २१ ।