पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७१३

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६७८ काव्य-निर्णय पी की बतियाँन मुनि, ती की प्रति माँसुन की, उमदी नदी-सी बड़ी नदी-सी सुहाती है। सोक है सुहात जाहि सो कहै विषम-बात, विष विष-मेख की लहर छैहराती है। घमि-धूं मि गिरति, भुनि भरै झूमि-भूमि, सखी-मुख चूमि-चू मि चूमि बिलखाती है। "गमों पर गम फटे पड़ते हैं ऐय्यामे-जवानी में। इजाफे हो रहे है, वाकियाते जिदगानी में ॥" अस्य प्रदोषता बरनन जथा- के चलि आगि परौस की, दरि करौ चॅनस्याँम । के हम कों' कहि दीजिए, बरी और' ही गाँम ।। अस्य तिलक इहाँ भागि भौर-ही भाँति की जानी जाति है, पै नायिका छिपाइ के कहति है, ताते नायक नायिका की बिरहागि जॉनी जाति है, ताते ये गुन है, दोष नाहीं । वि०-“दासजी कृत हस "तिलक" में कुछ स्पष्टता अप्रत्यक्ष रह जाती है, वह स्फुट नहीं हो पाती। सबसे प्रथम इस तिलक से यह नहीं जाना जाता कि यह सूक्ति-सखी या दूती की नायक-प्रति है, अथवा स्वयं नायिका की है। दासजी के तिलक से तो वह नायिका को-ही जानी जाती है, जो अयुक्त है- असंगत है। सखी या दूती-कथन नायक-प्रति हो सकता और यह मानने पर ही उक्त सूक्ति में सजावट श्रायेगी, जैसे- "सीरे जतनन सिसिर-रितु, सहि बिरहिन-तन-साप । बसिबे को प्रोम - दिनन, परी परौसिन-पाप ॥" "दुपाए मर्ग फुरकत में जो मांगी। मुहल्लेवाले चिक्खाये कि-"माये"" अथ अनुभाव की कष्ट कल्पना उदाहरन जथा- चैत की चाँदनी छीन सों, दिग-मंडल मॉनों पखारन लागी। वा पर सीरी बयार कपूर की, धूर-सी ले ले बगारन लागी॥ -१. (का० ) (३० ) सो...। २. (सं० पु० प्र०)...और के धाम । (प्र०) ...ही बॉम....