काव्य-निर्णय -६७६ भौरन की प्रबली करि गाँन, पियूष-सौ कॉन में डारन लागी। भौवती भाँवते'-ओर चितै, सहजै हो 'मैं भूमि निहारन लागी॥ अस्य तिलक इहाँ प्रेम को कोऊ अनुभाव कहिनों उचित हो "सहज-ही में भूमि निहारि" वो कहे ते नेह नाही जाँन्यों जात है, ताते इहाँ यो कहिनों उचित हो कि-- "मौखिन के ललचोंही, जजोंही, प्रिया पिय-मोर निहारन लागी॥" अथ अन्य रस-दोष बरनन जथा- भाव-रसँन प्रतिकूलता, नि-पुनि दोपत-उक्ति । यह है 'रस-दोष' जहँ, असमें उक्ति न उकि। अस्य उदाहरन परी, खेलि हँसि बोलि चलि, भुज पीतम-गर डारि। मायु जात छिन- छिन घटो, छोजे घट ज्यों बारि॥ अस्य तिलक इहाँ आयु-घटिबे को म्यान कहिबी, 'साँत-रस' को बिभाव है, सिंगार रस की नाही, ताते उक्त दोष है। वि०-"जहाँ भाव और रसों की प्रतिकूलता बार-बार (कथन-द्वारा) दिख- लायी जाय-प्रकाशित की जाय, वर्णनीय रस-विरोधी (वर्णनीय रस के विरोधी रस की ) सामग्री (विभावानुभाव ) का वर्णन किया जाय, असामयिक उक्ति कही जाय, वहां दासजी-मान्य उक्त दोष होता है, क्योंकि विरोधी रस की-उसके विभावानुभाव संचारी भावों से अवर्णनीय (जो कहना नहीं है) रस की व्यंजना होने लगती है और उससे कहा जाने वाला रस विरस हो जाता है- उसका श्रास्वाद नष्ट हो जाता है, अथवा वे दोनों (वर्णनीय-अवर्णनीय ) रस नष्ट हो जाते हैं। अस्तु, उक्त रस-दोष की स्पष्टता के लिये यहाँ यह जानना आवश्यक हो जाता है कि किस रस का किस रस से विरोध है-अमैत्री है, साथ-ही उसकी किस से मैत्री है इत्यादि...। जैसे- १.गार-विरोधी-करण, वीभत्स, रोग, पीर, भयानक, शांत । पा०-१. (का०) भाव ते."। २. (३०) (सं० पु० प्र०) जुक्ति । ३. (का०) (१०) उक्ति-अनुक्ति । ४. (का० ) (40) सो... (स' 'पु० प्र०) (1) बीलर के सौ बारि।
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