पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७१८

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काव्य-निर्णय ६५३ वाक्यों से यहाँ रस व्यक्त हो रहा है उन्हीं से-शृंगार रस और राजा के प्रताप का उत्कर्ष सूचित हो रहा है । इसलिये श्रृंगार और करुण दोनों का राज विषय- करति अंग बन जाने से विरोध नहीं गुण बन गया है। अथवा वीर-रस के शृंगार, करुण और अद्भुत रस अंग बन गये हैं - गुण बन गये हैं।" अथ दीप्ति (बार-बार) दोष-लच्छन जथा- पनि-पुनि दीपति-ही कहें, उपमाँदिक कछु नाहिं। ताही ते सज्जन गने, यैहू दून-माँहि ॥ अस्य उदाहरन जथा-- पंकज पाइँन पैजनियाँ, कटि घाँघरौ किंकिनियाँ जरबीली । मोतिन हार-ईमेल बलीन पै, सारी सुहाबनी कंचुकी नीली ॥ ठोड़ी पै स्याँमल-बुंद नूप, तरोनॅन की चुनियाँ-चटकीली । ईगुर की सुरखी दुरकी नथ, भाल में बाल के बेंदी छबीली॥ वि.-"उपमादि के बिना एक-ही रस की बार-बार दीप्ति--शोभा प्रद. र्शित करना भी एक रस-दोष' है, यह दासजी ने यहां कहा है। किसी रस के परिपाक हो जाने पर-उसका प्रसंग समाप्त हो जाने पर फिर उसी का वर्णन करना, 'दीप्ति' करना कहलाता है । दासजी के इस उदाहरण में यही दोष है, क्योंकि पाप-द्वारा यहाँ परिपुष्ट और उपभुक्त श्रृंगार-रस फिर से दीप्त किया जाने के कारण मीड़े हुए पुष्प के समान अशोभन हो गया है, अतः उपयुक्त दोष है।" अथ असमै जुक्ति कथन-उदाहरन जथा- सजि सिंगार-सर पै चढ़ी, सुंदरि निपट सुबेस । मँनों जीति भुव-लोक सब, चली जितन दिबि-देस ।। अस्य तिलक यहाँ सहगामिनी देखि के सांतरस परनिवौ उचित हो, सिंगार रस नाही, ताते 'मसमह' कथन दोष है। सहगामिनी-पति के संग जरिवेवारी कों वि०-"बिना अवसर किसी बात-या रस का सहसा विस्तार करना "स- मय युक्ति-कथन" दोष माना जाता है। संस्कृत में इसे "प्रकांड-प्रथन" कहा पा-१. (का०) (२०) (प्र०) (स० पु० प्र०) याहू...। २ (स० ए० प्र०) मोती को हार...। ३. (स० पु० प्र०) में"। ४, (का०) (१०) (१०) मुर की"। . (4०) लालको